अपनापन
ढूंढ़ रहे हम उन गलियों को,
जिसमे अपनापन बीता था।
कुछ भीगी भीगी यादो संग,
तन भी ज़ब महका करता था।
उलझन की उलझनों मे अब,
दिखावो नें उलझाया बहुत।
खो गई मासूमियत बचपन की,
जिसमे अपनापन सुलझता था।
मुस्कान वही तो अब भी है,
चेहरे पर मुखौटे सबके मढ़े हुए।
हम भूल गये वो अपनापन,
जो अपनों से मिला करता था।
अपने अपनों से ही करते है,
कुछ अपनेपन की परिभाषाये।
अपने ही अपनों को बदल रहे,
अपनापन जो दिल सहलाता था।
साथ होकर भी हमसाथ नहीं,
अपनेपन का एहसास नहीं।
जज्बातो का तो अब नेह मिटा,
एहसास जो झलका करता था।
स्वरचित
मीना तिवारी

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