शीर्षक:- गांव-गांव ही रहेगा।
नगरीय लोग गांव की विलुप्ति बताते हैं,
ग्रामीण शहर की तरफ बढ़ना चाहते हैं,
गांव-घर की संस्कृति, शहर को लुभाती,
पसंद आता गांव को , नगर का प्रदर्शन दिखावटी ।
गांव में रहें कैसे ? शहरीय व्यवस्था हो नहीं पायेगी!
ग्रामीण परिवेश को चाहने वाले,
नगर ही क्यूँ आयेगा ?
सुविधा-सम्पन्न होकर भी, गांव-गांव ही रहेगा ।
चाह रहती है अगर, नगर के मन में ,
फिर क्यूँ दिखावटी बनावटी जताते,
फिर नगर नहीं,
बस गांव से गांव और गांव ही बनाते ।
सुख सुविधा आधुनिकता का भोग,
नगर में है अनेकानेक रोग,
हर वस्तु की कीमत है नगर में,
फिर भी रहना चाहते इसी भंवर में,
गुणगान गांव का करते हैं,
पर एक दिन भी नहीं ठहरते हैं,
आज गांव वीरान पड़े रो रहे हैं,
आधुनिकता की चकाचौंध में,
गांव के हर लाडले खो गए हैं,
गांव की मिट्टी से अनमोल,
नगर की सड़क बन गई हैं,
आधुनिक परिवेश में, दया रानी मर गई है ।
ढलते उम्र काश! को लेकर छटपटाहटते है ,
गांव की याद तब आती है,
जब गांव का सब बेंच खाते हैं |
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई



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