ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

"पर्वत और सन्नाटा"- नलिनी अग्रवाल

"पर्वत और सन्नाटा"

लेह लद्दाख की सुदूर पर्वत माला की
पहाड़ी तलहटी में,
चारों ओर पर्वत श्रृंखलाओ से घिरे,
झील, पर्वत और बर्फ से जमे 
ग्लेशियर के नजदीक
प्रकृति की गोद में खड़े,
बारिश की नन्ही बूंदों से भीगते हुए
दोनों हाथ ऊपर उठाए 
नतमस्तक हूं उस सृष्टि निर्माता के सामने
जिसने इस ईश्वरीय सुख को पीने
इन हवाओं में सांस लेने
और प्रकृति की सुंदर सृष्टि में
कुछ पल जीने का अवसर दिया।
आभार इस प्रकृति का
जिसने जीवन दिया और जीने के लिए
जीवन चक्रों का निर्माण किया।

मुस्कुराती हुई उन्नत पर्वत श्रृंखला
और धरती पर खड़े तुच्छजीवी हम
कर रहे हैं आत्मसात् 
बादलों के झरोखों से आती,
सूर्यदेव की ऊष्णता को,
घुल रही है जिसमें ...धीरे-धीरे
देह और आत्मा में बसी
कठोर बर्फ सी जमी 
भावनात्मक दरिद्रता,
तभी, अचानक आई बारिश की नन्हीं फुहारों में 
मन को भिगोती,
आंखों की कोर से बरस उठती है,
मन की विपन्नता।

पहाड़ों से घिरी ये गहरी घाटी
धरा के विकास का इतिहास बताती है
कैसे बने होंगे पर्वत,
प्रकट हुई होगी मानव जाति
दोहन किया होगा प्राकृतिक संपदाओं का
और पशुओं को उनकी जमीन से खदेड़ कर
बसाए होंगे शहर,
और रिक्त कर दिए होंगे नदी, नाले, नहर।

सुदूर पहाड़ों पर युगों से जमे ग्लेशियर
जल की सबसे बड़ी सौगात के जनक होने पर भी
गर्व से विमुक्त, सिर उठाए खड़े हैं
कि उनके बिना न जान होती, न जंतु
न अर्थ, न काम, न मोक्ष, न बंधु।
पर्वतों पर सजग प्रहरी से खड़े
देवदार, चीड़ और बलूत के ऊंचे वृक्ष
धरा को अपनी जड़ों से बांध
सदियों से दे रहे हैं स्थिरता,
और एक संदेश कि 
बिना जड़ों के धरती से जुड़ा मानव
वसुधा का रक्षक कृष्ण बने, कंस नहीं,
धरा को पोषित करे, भ्रष्ट नहीं।

वापिस लौटते हुए
मन में तृप्ति का सन्नाटा है
शांति, शांति और बस शांति।
शायद यही मनुष्य का
प्रकृति से नाता है।।

            ✍️-नलिनी अग्रवाल

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