ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

सप्तश्लोकी गीता अभ्यास

 सप्तश्लोकी गीता अभ्यास


॥ सप्तश्लोकी गीता ॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

 य: प्रयाति त्यजन्देह स याति परमां गतिम् ॥ १ ॥

जो ॐ इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण कर, मेरा स्मरण करता हुआ देह का त्याग कर देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च । 

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा: ॥ २ ॥

अर्जुन ने कहा: हे हृषिकेश, यह उचित है कि संसार आपकी स्तुति से प्रसन्न और आकर्षित हो जाए। राक्षस, भय से त्रस्त, सभी दिशाओं में दौड़ें और यह कि सिद्धों के सभी समूह (आपको) नमन करते हैं।

सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोSक्षिशिरोमुखम् ।

 सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ ३ ॥

वह सब ओर हाथपैर वाला है और सब ओर से नेत्र, शिर और मुखवाला तथा सब ओर से श्रोत्रवाला है; वह जगत् में सबको व्याप्त करके स्थित है ।

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: । 

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं  तमस: परस्तान् ॥ ४ ॥

जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारणपोषण करने वाले अचिन्त्यस्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है।

ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। 

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ५ ॥

-जड़ें ऊपर की ओर नीचे की ओर शाखाएँ बरगद का पवित्र वृक्ष कहा गया है। शाश्वत वैदिक मंत्र जिसके; पत्ते जो कोई उसको; जानता है वह विद्वान् वेदों का ज्ञाता है ।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ ६ ॥

मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन ( उनका अभाव ) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य ( जानने योग्य ) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां   नमस्कुरु ।

 मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥ ७ ॥

तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; ( इस प्रकार ) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,( क्योंकि ) तुम मेरे प्रिय हो।

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