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गुप्तकाल के बाद सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति

गुरुकुल अखण्ड भारत
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गुप्तोत्तर काल में अनेक सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन गुप्तोत्तर काल में हुए, जिन्होंने समाज के विभिन्न पक्षों को प्रभावित किया। गुप्त युग से भूमिदानों की जो परंपरा प्रारंभ हुई, वह कालांतर में विकसित होते-होते एक संपूर्ण सामंतीय व्यवस्था के रूप में उभरी। बहुत से सामंतीय पदों का उदय हुआ जो भूमि व सैनिक शक्ति पर आधारित थे, जिसके फलस्वरूप वर्णव्यवस्था के ढाँचे में परिवर्तन हुआ। विभिन जातियों का उद्भव होने लगा था।

अपने यात्रा विवरण में ह्वेनसांग ने भारतीयों के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि का वर्णन किया है। वह लिखता है, इस देश का प्राचीन नाम सिन्धु था परन्तु अब यह इन्दु (हिन्द) कहलाता है- इस देश के लोग जातियों में विभाजित हैं जिनमें ब्राह्मण अपनी पवित्रता और साधुता के लिए विख्यात हैं। इसलिए लोग इस देश को ब्राह्मणों का देश भी कहते हैं। समाज परम्परागत चार वर्णों में ही विभाजित था। समाज में ब्राह्मणों का सम्मान था, उन्हे उपाध्याय, आचार्य आदि कहा जाता था। उनका प्रमुख कार्य अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन ही था। इस युग में सामाजिक अस्थिरता व्याप्त थी। बाह्य आक्रमणों का भय बना रहता था। ब्राह्मणों ने अपने व्यवसायों के साथ-साथ अन्य व्यवसायों को भी अपनाना आरंभ कर दिया था। स्मृतिकार पराशर ने ब्राह्मणों को कृषि करने की अनुमति प्रदान की है। यदि वे स्वयं न करें तो खेतिहरों से खेती करवा सकते थे। स्वयं ब्राह्मण भी खेती किया करते थे। चालुक्य नरेश कुमारपाल के लेख (1144 ई.) में आया है कि ब्राह्मण व्यापार भी करते थे। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने वेदज्ञ ब्राह्मण को सेनापति तथा राजपद ग्रहण करने की अनुमति प्रदान की है। ब्राह्मण राजदरबार में सभासद, परामर्शदाता, पुरोहित, मंत्री आदि पदों पर नियुक्त किये जाते थे। राजपूतों का अभ्युदय इस काल में हुआ जिन्हें क्षत्रिय माना जा सकता है। यह योद्धा वर्ग तो था ही लेकिन जीविका के अन्य साधनों को भी अपनाता था। क्षत्रियों का एक वर्ग राजा, योद्धा व सामंत था।

कृषि, व्यापार व शिल्प आदि व्यवसायों में दूसरा वर्ग संलग्न था। वैश्य वर्ग कृषि, पशुपालन, व्यापार द्वारा जीवकोपार्जन करता था। गुप्तोत्तर काल में वैश्यों ने कृषि व पशुपालन छोड़ दिया था और व्यापार करने लगे थे। व्यापारी बहुत धनी होते थे और राजकीय पदों पर भी नियुक्त किये जाते थे। पाराशर स्मृति से विदित होता है कि ये सूद पर भी रुपये देने का व्यवसाय करते थे। बौद्ध-जैन और वैष्णव धर्म में प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धांत के प्रभाव से वैश्यों ने सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए कृषि-कर्म तथा पशुपालन छोड़ कर व्यापार को अपनी आजीविका का साधन बना लिया था। व्यापारी वर्ग बहुत शक्तिशाली हो गया था। चालुक्य नरेशों को गुजरात के कई समृद्ध व्यापारियों से संघर्ष करना पड़ा था। इससे स्पष्ट होता है कि व्यापारियों ने संभवत: अपनी सैन्य शक्ति भी बढ़ा ली होगी। राजा के मंत्रि-परिषद् में भी बहुत से व्यापारी शामिल होते थे।

इस कल में शूद्रों की स्र्थिक स्थिति में सुधार परिलक्षित होता है। शूद्र कृषक थे, औद्योगिक कलाओं एवं शिल्पों का अनुसरण भी करते थे। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि के अनुसार शुद्र के लिए आवश्यक नहीं था की वह द्विजातियों की सेवा से आजीविका चलाए। देवल, पाराशर आदि स्मृतिकारों ने भी शुद्र के लिए कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि व्यवसायों को अपनाने की छूट दी। पुतनों में भी कुम्भकर, बढ़ई पत्थर तराशने वाला, लौहकार आदि के कार्य द्वारा जीविका चलने की शुद्र को छूट डी गयी है। शूद्रों की आर्थिक स्थिति में सुधार होने पर भी उनकी सामाजिक स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं आये, यद्यपि धार्मिक क्षेत्र में उन्हें कुछ अधिकार प्रदान किये गये। पुराणों में जिस लोकधर्म का उदय हुआ है, उसका अनुसरण शूद्र कर सकते थे। धर्म का स्वरूप कुछ उदार हो गया था। शूद्र विष्णु व शिव के नाम का स्मरण कर सकते थे। वे तीर्थयात्रा कर सकते थे। वे पुराणों को भी सुन सकते थे। उनकी मोक्ष प्राप्ति के यही साधन थे।


समाज में बहुत सी जातियाँ भौगोलिक क्षेत्रों व उद्योग-धंधों के आधार पर विकसित हुई। कायस्थ जाति का उद्भव गुप्तकाल में हुआ, अब उसका उपजातियों में विभाजन होना प्रारम्भ हो गया था। कायस्थों के उदय से ब्राह्मणों के जीविका साधनों में निश्चय ही सीमितता आयी होगी। भूमि तथा राजस्व संबंधी दस्तावेज निपटाने का कार्य कायस्थों का ही था। ये लोग भूमि संबंधी दस्तावेजों में हेरा-फेरी करने लगे थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि राजा प्रजा की इनसे रक्षा करे। कल्हण ने भी संकेत दिया है कि प्रजा उनके अत्याचारों से पीड़ित थी। भूमि संबंधी दस्तावेज तैयार करवाने और प्रशासनिक लेखों को तैयार करवाने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती थी। संभवत: इनके द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता होगा।

अस्पृश्यता में वृद्धि इस काल में दिखायी देती है। पूर्वकाल में चांडालों को तो अस्पृश्य माना ही जाता था। लेकिन अब कई जातियों को अस्पृश्य बताया गया। स्मृतियों में धोबी, चमार, नट, वरूड, कैवर्त, धीवर, भेद तथा भिल्ल जातियों को अस्पृश्य माना है। पुराणों में तो इस प्रकार की जातियों की संख्या अठारह तक पहुँच गई। कई परिस्थितियों में अस्पृश्यता संबंधी नियमों में छूट दी गई थी। देवयात्रा, विवाह, यज्ञोत्सव, देश पर आक्रमण के समय अस्पृश्यता का भाव त्याग दिया जाता था।


स्त्रियों की दशा में गिरावट दिखाई देती है। उनकी शिक्षा पर कुप्रभाव बाल-विवाह का प्रचलन बढ़ने से पड़ा। बहुत से स्मृतिकारों व निबंधकारों ने घोषित किया कि स्त्री का विवाह 8 से 10 वर्ष की आयु में कर देना चाहिए। शिक्षा का प्रचलन ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वगों की स्त्रियों में अवश्य था। कई स्त्रियाँ तो विदुषी भी होती थीं जैसे अवन्ति, सुन्दरी, लीलावती आदि। सामान्यत: कन्याओं का विवाह माता-पिता द्वारा ही तय किया जाता था। उच्चवर्ग में स्वयंवर का प्रचलन था। गुप्तोत्तर काल में जातिगत कठोरता विद्यमान थी। विभिन्न जातियों के खान-पान विवाह आदि के नियम कठोर बना दिये गये थे। इतना होने पर भी समाज में अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन था। क्षत्रिय कन्या से ब्राह्मण कवि राजशेखर का विवाह हुआ था। हर्षचरित में स्वयं बाण कहते हैं कि उसके पिता की शूद्रा पत्नी भी थी जिससे चंद्रसेन एवं मातृषेण के दो पुत्र उत्पन्न हुए। प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिशचन्द्र की एक ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय पत्नी थी। समाज में अनुलोम विवाहों का प्रचलन था। कई स्मृतिकारों का मानना है कि अनुलोम अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान की जाति माता पर आधारित होगी। अलबरूनी का मत भी इसी प्रकार का है। दसवीं शताब्दी तक अन्तर्जातीय विवाह चलते रहे किन्तु कालान्तर में इसका प्रचलन कम होते-होते सदा के लिए लुप्त हो गया। विधवा विवाहों का प्रचलन नगण्य सा था। सती प्रथा व जौहर प्रथा का भी प्रचलन था। उन्हें अधिकतर राजपूत स्त्रियाँ ही अपनाती थीं।

सतीप्रथा की प्रशंसा स्मृतिकारों व निबंधकारों के एक वर्ग ने की है। पाराशर, शंखलिखित, अंगिरा, हरित, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने सतीप्रथा की प्रशंसा की है। कुछ टीकाकारों जैसे मेधातिथि और विराट ने इसका विरोध किया है! मेधातिथि का मानना है कि सती प्रथा एक प्रकार से आत्महत्या है जिसका वेद विरोध करते हैं और यह स्त्रियों के लिए वर्जित है। विराट भी सती प्रथा के विरोध में प्रतीत होते हैं, उनका कहना है कि यदि विधवा जीवित रहती है तो वह श्राद्ध में अपने पति के नाम पर दान देकर उसका कुछ भला कर सकती है परन्तु वह चिता में जलती है तो आत्महत्या करने का पाप करती है। इसका घोर विरोध हर्षचरित के लेखक बाण ने भी किया है। विरोधी विचारों के होते हुए भी सती प्रथा का प्रचलन बढ़ता गया। सातवीं सदी के बाद इसके समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी और सतियों का गुणगान किया जाने लगा।

राजकीय प्रशासन में भी बहुत सी कुशल स्त्रियों का प्रवेश था। पश्चिमी चालुक्यों की रानियाँ बड़ी कुशलता से शासन की बागडोर संभालती थीं। समाज वेश्यावृत्ति व कन्याहरण की प्रथाएँ प्रचलित थीं। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि स्त्रियों के अधिकारों को सीमित किया जाने लगा। धीरे-धीरे यह अवधारणा जोर पकड़ने लगी कि स्त्री को कभी स्वावलम्बी नहीं होना चाहिए।

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