ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

अमलदार 'नीहार' की लम्बी कविता 'लोहा'

अमलदार 'नीहार' की लम्बी कविता 

'लोहा' 

धूप-सँवलायी ज़िंदगी की राह में
चुटकी भर सुकूँ-सम्मान की चाह में-
उम्र-थके पाँव, अश्रु-छके भाव,
मगर इस जिद्दी घोड़े ने मुख नहीं मोड़े
न कभी दम तोड़ेगा मंज़िल चूमने से पहले,
चखा है खूब 'लोहे' का स्वाद छककर
न रुका पल एक भी विश्राम को, थककर | 
घुल चुका है 'लोहा' लहू में-बेकली भी, 
दिलरुबा-सी कोई दिल में, दिलजली भी,
बहुत विनम्र प्रार्थना है मेरी
कि दोपाये भी न जाने कितने जीते हैं 
इस घोड़े से बदतर ज़िंदगी
व पालते हैं ख़्वाब बेबुनियाद, 
जानते हैं वे भी खूब 'लोहे' का स्वाद-
कि घोड़े में-लुहार में और रचनाकार में बहुत फर्क नहीं,
ये तीनों ही जानते हैं भलीभाँति लोहे का स्वाद,
लोहा लेते हैं-बेरहम ज़माने का प्रसाद | 

लुहार भी धधकती आग में सँग लोहे के 
पिघलता-तपता-खपता-दहता-सहता 
रोम-रोम स्वेद-सीकर-लथपथ अविरत 
उगलती हैं शिराएँ लहू का नमक होठों तक 
धार-धार माथे से बार-बार बरौनियों में उलझी हुई बूँद 
टप........ टप टपकती ही जाती है धरती पर
जीवन की परती पर 
बँधा हुआ गुर्बत का गर्वीला हाथी, 
उखड़ती हुई साँस ज्यों मुई खाल की भाथी- 
जिसके इस्पाती जिस्म की किणांकित सधी मुट्ठियाँ 
हथौड़े का वजन जानती हैं और वज्रबाहु भी विशाल घन का 
तपती हुई भट्ठी में-दहती हुई भट्ठी में 
लकालक गर्म सुर्ख लोहे पर 
कहाँ-कहाँ कितनी बार छिटकती गर्म चिनगारियों के बीच 
कैसी-कैसी चोट खानी पड़ती है-
देनी पड़ती है चोट दाँतों के बल, उसे ही मालूम है.......
मनोवांछित आकारों में ढलता-उसी के पसीने से पिघलता
लोहा भी जानता है बहुत खूब
उस लुहार की मेहनत और मेहनत का प्रतिफल भी 
वही है, जो लोहे को निज लहू-पसीने से 
पानीदार तलवार बना सकता है 
तो बूढी दादी की टक-टक आँखों की सधी सूई भी, 
जिसके छेद से प्रेम के धागे ही नहीं 
रेगिस्तानी जहाज और मुसीबत के पहाड़ भी 
पार हो जाते हैं कभी-कभी | 
लुहार लोहे से बन्दूक भी बना सकता है और फाल भी, 
आखिर इस कठिन काल में 
देश को जरूरत किस चीज की है-
बन्दूक की या हल के फाल की?
भाले की-बर्छी की, कटार की या खुरपी की?
हँसिये की-फावड़े-कुदाल की?
धनुष के वाण की या तनुत्राण की?
विनाश की या लोक-कल्याण की?
तलवार की या सूई की, 
जो निकाल सके काँटे जनम-जनम के
इंसानियत के पाँव के-जंगल के घाव के | 

रचनाकार भी इक घोड़ा है और लुहार भी 
जानता है पेट की भूख और पीठ सहलाते हाथ का प्यार भी, 
जो बिना नाल-ठुके घोड़े की तरह 
निर्मम त्रिकाल लम्बी सड़क पर दौड़ लगाता है अविराम, 
कविका-विहीन नहीं है कवि भी, आठो याम 
उदीयमान रवि-सा, धधकती संवेदना-भट्ठी में 
लुहार की तरह अजस्र वेदना-ताप तपता-खपता-दहता-सहता 
शब्दों के गर्म लोहे को नया आकार देता है 
अंतस की आँच में अनुभव-अयस साँच पकता है-
आँवे-सा, पुटपाक-संकाश बनाने को व्यंजना-रसायन | 
वह सयानी बेटियों के कर्जखोर बाप की 
जागती उदास आँखों में बीमार ख़्वाब की बुनावट पढ़ता है-
गढ़ता है एक मार्मिक छवि दृग-निर्झर की तूलिका से, 
सुनता है दहेज़-लोभियों के बेमुरौव्वत जवाब दो टूक, 
महसूसता है बाढ़-डूबी फसल निहारते 
निहोरी के किसान कलेजे की उछाल मारती हूक,
भोली भावुक कैशोर्य-लता चम्पा की अधकचरी चूक-
दोनों के दिमागी गुहांधकार में 
रेंगते साँप-बिच्छुओं की डंक-डूबी चीत्कार,
फाँसी के फन्दे की मजबूती निरखती डबडबायी आँखों में 
भीतर से बाहर असीम उमड़ता हाहाकार 
व फूल से सुकुमार सपनों की मौत का निर्व्याज साक्षी, 
वह बेबस रूहों की लाचार अबूझ तड़प जानता है 
और आँखों से अनायास बह आये, कपोलों पर ठहरे   
तप्त बेहिसाब आँसुओं का वजन भी | 
लोहा लेता है भीतर के घूर्णावर्त दबावों से 
बाहर के दिगायाम क्रूर-कातिल हवावों से, 
पर अपने किरदार को कभी अकेला नहीं छोड़ता, 
वह बलात्कार का शिकार मासूम कोमलता के 
अशब्द बयान का अकेला श्रोता, 
अश्रु-बोझिल साँस की डूबती साँझ का चितेरा-
उसके वजूद के अछोर पोर-पोर दर्द का व्याख्याता | 
वह अस्पताल के नंगे फर्श पर छटपटाती बीबी के लिए 
बढ़ी धड़कनों के साथ कल्पान्त लम्बी कतार में 
सूखे मुँह-मजूरे की टूटती लय-ज़िंदगी का मूक द्रष्टा,
आदमखोर व्यवस्था की ठेकेदार बाघिन 
और स्वर्ग-नरक के बीच अधबने भ्रष्टाचार-पुल-नीचे दबी 
पिचकी-सी गाड़ियों में दबी हँसती-खेलती दुनिया को 
लोथड़ों में तब्दील होते देखता है-
जी नहीं सकता रचनाकार कोई भी सच्चा-इंसानियत का बच्चा
पल-दो पल जीवन के-चैन से ऐसे दृश्यों के रू-ब-रू | 
रचता है भले ही स्वान्तः सुखाय "घर-घर अनाथ-गाथा",
पर बच पाता है केवल 'लोकहिताय' बनकर सुरसरि-समान | 
मैली गंगा को उपमान बनाकर 
किसी की नीयत का मजाक उड़ाना 
हो सकता है अपराध इस दौर में-
कि प्रकृति के पाँव में बेड़ियाँ डालने वालों ने 
गंगा का गला घोंट दिया है, 
कवि का एक-एक शब्द विप्लव के बीज बो सकता है-
वह जानता है अपने सुख को, मगर दुःख में सानता है, 
लोहा लेता है डरे हुए लोगों से-मिट्टी के शेरों से-
सियासत-सरदारों से-कैतवकला-प्रवीण किलेदारों से, 
चालाक लोमड़ियों से-रँगे हुए सियारों से, 
सत्ता की रखैल निष्ठा से, पुरस्कार-प्रतिष्ठा से | 

सच सलीब है ईसा की, सुकरात का हेमलाक-साजिश खौफनाक 
महात्मा बुद्ध की वाणी, गाँधी का-अब्राहम लिंकन का आत्मनिर्णय, 
सचाई के लोहे को शब्दों के साँचे में ढालना 
और पश्यन्ती को वैखरी बनाना 
इस ज़माने में बहुत ही मुश्किल काम है और खतरनाक भी | 
कबीर का करघा नज़रबंद है, प्रेमचंद पर टेढ़ी नज़र, 
मंटों पर मुकदमे तमाम, मुक्तिबोध पर पाबंदी 
किशोरीदास वाजपेयी, उग्र, निराला गुस्ताख़, 
अब बुलबुल के गीतों की कहाँ बची साख, 
गाँव-गली, शहर-शहर, नदियों में, वादियों में 
उड़ रही आदमी के वादों की अस्थिशेष राख,
लैली पे सवार भूषण का छंद कितना आत्मघाती-
की "सौ-सौ चूहे खाइ के बिलाइ बैठी तप को"
करता न रहे आवारा कोई तुकबंदी, 
नाम दूसरे के ज़मीन-आयी चकबंदी-
'कातिल-कसाई-क्रूर कलिकाल जप को'
यही युग-सत्य है-विनाश का अपत्य है, 
क़ानून की नसबन्दी और हमारी हदबन्दी | 

हमारी चादर को कुतर रहे हैं दो चूहे श्वेत-श्याम  
और मैं साँसो के बीमार धागे से 
करता ही जाता हूँ रफू उसे बारम्बार, 
हमारे आस-पास पसरे हैं कुछ बहुत ही खूँख्वार शब्द  
कि शब्दों के रेशमी छिलकों में जहरीले अर्थों के अन्धे वायरस 
जो फैलते ही चले जाते हैं समाज की नस-नस में, 
उन शब्दों को घूँटने के सिवा कोई चारा नहीं, 
पर कोई भी शब्द-बीज 
बिना अंकुरित हुए रह नहीं सकता-
फूट निकलते हैं फफोलों-से,
रिसते हुए अनगिन घावों से रक्त-मवाद की तरह 
कि दिल में कोई नासूर हो जैसे, 
टीसता हुआ दर्द भरपूर हो जैसे, 
शब्दों के मरहम लगता हूँ, 
शब्दानुशासन के गीत जाता हूँ, 
शब्दों का रेशा-रेशा हमारे काम आता है,
शब्दों की दुनिया में दर्द बेदाम आता है |

शब्दों के इस महाजंगल में 
कुछ शब्द भेड़-बकरी-से बन गए पालतू, 
कुछ कुत्ते और बिल्ली-से शेखचिल्ली से, 
कोई रंगा और बिल्ला, किकियता हुआ पिल्ला, 
कुछ शब्द खूँख्वार भेड़िये-से तो कुछ दरिन्दे-से
कुछ तो हैं चील और बाज-से, घायल परिन्दे-से-
फाड़ खाते हुए, गुर्राते हुए, चीखते हुए-चिचियाते हुए  
दाँत निपोरते, सलाम ठोंकते,
नाक रगड़ते, शेखियाँ बघारते

और इन सभी संशयग्रत खौफनाक ध्वनियों से 
लोहा लेते हुए, लोहे का स्वाद चखते हुए 
मुझे तो अकेले खड़े रहना है उन्नतग्रीव 
भर स्वाभिमान सीने में, स्थिर टाँगों पर 
अविचल धैर्य और तितिक्षा के साथ ताकयामत 
कमजोर कन्धों के साथ निज धर्मरत-कर्मरत, 
यही तो निज जीवन-संसार, जीने का सार 
बिन लोहे के भी है ज़िंदगी बेकार | 
हमारी आह में लोहा, हमारी राह में लोहा, 
हमारी भूख भी लोहा, हमारी प्यास भी लोहा, 
लोहा-लोहा, सिर्फ लोहा | 

[हृदय के खण्डहर-अमलदार 'नीहार']

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