वैदिक विचार व कर्म
🚩वै.वि.व कर्म-5
'धर्मंचर'आदेश है प्रभु का,अनुपालन चराचर हैं करते।
सूर्यचन्द्रादिनक्षत्र वधरती,सबअपनेपरिपथपरचलते।।
गुरूत्वधर्म का आकर्षण,समय चक्रगति को अपनाते।
सबके अपने नियतिधर्म हैं,प्रकृतिधर्म नहीं तजपाते।।
क्षिति की धार्यताही धर्म है इसीलिए धारित्रीभी कहते।
पावनता ही जल-धर्म है,जल को ही जीवन हैं कहते।।
दाहकता ही पावकधर्म है, अपावन को पावन करते।
प्राणितकरना समीरधर्म है,अनुपालन सदा ही करते।।
आबद्ध परिधि से नहींहै जो उसे ही आकाश हैंकहते।
निस्सीम गगन,गमन क्षेत्र है,रिक्तता को धर्म हैंकहते।।
पूनम मावस में चन्द्रकला से ज्वार-भाटा का हैआना।
वाष्पीकरण से वारिदबनना,सूर्यचन्द्रमें ग्रहण लगना।।
ग्रहण नहीं हैराहुकेतु का ग्रसना,येतोहै पाखंडी रचना।
वृष्टिअनावृष्टि भूस्खलन,प्राकृतिक-प्रभु की संरचना।।
अंधविश्वासी पिंजरे का पंक्षी,अंधावृती कूप में रहते।
पुरखे कहगये ऐसाही है,वैसा करते क्लेश को सहते।।
सुदूरग्रहों काभय दिखलाते,तमावृत्त मतिभ्रष्टहैं करते।
धर्मनिष्ठ को धर्मभीरू बना,लक्ष्मीहरण से घर भरते।।
ज्योतित करता जो जगको,विमला का विशदवरदान।
ग्रंथों का है ग्रंथ शिरोमणि,ज्योतिषविद्या ग्रंथ महान।।
🚩वै.वि.व कर्म-6
मत मतांतर तो अवनी के, ये मानव-मत वा अभिमत हैं। आवृत और अनावृत करते,गुरु का जैसा मत,कुमत है।।
गुरु का धर्म है ज्योतित करना,अंधकार को दूर भगाना।
परिमार्जन करके मेधा का,शिष्यको अपने धीमान बनाना।।
कहीं मिला जो गुरु अज्ञानी, फिर शिष्य कहो कैसे विज्ञानी।
बचके लालच के दाँवपेंच से, कूप नहीं पड़ते सुधी सुज्ञानी।।
लंगर बँधा रहे जो तट पर, नांँव कहो क्या जाता है सत्वर ?
तुम चप्पु चलाते रहो निर्रथक,है पार कराता नाविक चत्वर।।
एक विकट मत खूब चला था,जनमानस को बहुत छला था।
नाककान दोनों कटवाकर "नकटा"कहाते अतिछद्म कला था।।
प्रभु से मिलन का अतिगुप्त ज्ञान है, कह करके थे जाल बिछाते।
जब फँस जाता था पंछी वह, मति मेधा पर उसके छा जाते।।
नाक कान प्रछन्न कराकर, निज समाज किस मुँह से जाते।
ठगा और विकलांग जानकर,क्या जन जन से उपहास कराते।।
पाकर वह पामरी आचरण, हर जन से अब खुद ही वो कहते।
सरल मार्ग है हरिदर्शन का,उर की पीड़ा को मन ही मन सहते।।
क्रमशः-7
.jpg)

0 Comments