वो सहमी सी लड़की.....
चूल्हे के सामने बैठी वो
सात आठ साल की
सहमी सी लड़की
देखती है जलती हुई
लकड़ी को
जैसे कि जल रहे हों
अरमान उसकी माँ के,
रोज़ देखती है वो
अपनी माँ को
पिटते हुए जब रात को
दारू पीकर आता है वो
जिसे अपना बाप कहने
से कतराती है वो
फिर.....
कान फट जाते हैं उसके
माँ की चीखें सुनकर,
सहम जाती है वो
जब देखती है अपनी माँ
के बदन पर नीले निशान,
फिर कपड़े की ठिगड़ी
बनाकर सेंक करती है
और दोनों रोती हैं
गले लग कर इकदूजे के।
आज वो माँ की जगह
काम पर गई थी,
झाड़ू पोछा बर्तन सब
करने के बाद जब
बीबी जी ने पूछा तो
झूठ बोल दिया कि
बुखार है माँ को,
सब सोचते सोचते
ना जाने कब तवे पर
डाली टेढ़ी मेढ़ी सी रोटी
जल गई तो
विचारों की तन्द्रा भंग हुई,
कितने सुखी हैं ये बड़ी बड़ी
कोठियों वाले लोग,
मैं भी बड़ी हो कर
किसी अमीर आदमी से
शादी करूँगी कम से कम
मार तो नहीं पड़ेगी,
गरीब आदमी की
बीवी को तो मार ही पड़ती है,
कितने सुखी हैं ये
अमीर लोग,
हम अमीर क्यों नहीं हैं?
क्या गरीब होना गुनाह है?
या दारू पीकर बीवी को
पीटना गुनाह है?
कुछ समझ नहीं पा रही
थी वो सहमी सी लड़की,
धीरे धीरे लकड़ी का
धुआँ बढ़ता जा रहा था
और उसकी आँखों से पानी,
अब ये पानी धुँए से था या
माँ के बदन पर
मार के दर्द का,
कब किसे कैसे बतायेगी
वो सहमी सी लड़की।
वो सहमी सहमी सी लड़की।।
✍️संजय भाटिया
डी एल एफ़ 3, गुरूग्राम।
हरियाणा।
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