मेरी आदर्श व प्रेरणा महानायिका सावित्रीबाई फुले

आज हम आपको एक ऐसी महान हस्ती से परिचय करा रहे हैं, जिसकी जानकारी हमारे समाज व अन्य वर्ग के सभी लोगों को भी नहीं होगी, क्योंकि हमें केवल वही दिखता है, जिसे दिखाने की कोशिश समाज करता है। शिक्षक दिवस के रूप में हम डॉक्टर राधाकृष्णन जी का जन्मदिन मनाते हैं, लेकिन सबसे पहले महिलाओं को शिक्षित करने और उनका विकास करने में सावित्रीबाई फुले जी का ही सबसे अधिक महत्व है। इनके परिचय को समाज ने व देश ने छिपाकर रखा, जिससे बहुत कम लोग जानते हैं इनके महत्व व कार्यों को। देश की पहली महिला शिक्षिका भी यही है। आइए आज हम इन्हीं के जीवन परिचय उनके महान कार्यों से आपको अवगत कराते हैं और उम्मीद करते हैं कि आप सभी धैर्य पूर्वक समय देकर उनके बारे में जानने की कोशिश भी करेंगे। एक शिक्षक और महिला होने के नाते हम सभी उनके त्याग, समानता, मित्रता की भावना को विकसित करने वाले इस अतुल्य कार्य के लिए उनको कोटि-कोटि नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं, कि आज हम सभी महिलाएं उनकी वजह से सामान्य व उच्च जीवन व्यतीत कर रही हैं। इस बात को सभी ने हमेशा याद रखना चाहिए।
सावित्रीबाई फुले जी का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नौगांव नामक स्थान पर हुआ था।
उनके पिता खंडो जी और उसकी माता का नाम लक्ष्मी बाई था। सन 1840 ईस्वी में मात्र 9 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह 12 वर्ष के ज्योतिबा फुले से हुआ। महात्मा ज्योतिबा फुले एक महान विचारक, कार्यकर्ता, समाज सुधारक, लेखक व दार्शनिक, संपादक और क्रांतिकारी भी थे। सावित्रीबाई पढ़ी-लिखी नहीं थी। शादी के बाद ज्योतिबा फुले ने ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया। बाद में सावित्रीबाई ने दलित समाज की ही नहीं बल्कि देश की प्रथम शिक्षिका का गौरव भी प्राप्त किया। उस समय लड़कियों की दशा अत्यंत ही दयनीय थी और उन्हें लिखने-पढ़ने की अनुमति भी नहीं थी, इसलिए उन दोनों ने सामाजिक कुरीतियों को तोड़ने के लिए ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने सन् 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला स्त्रियों के लिए पहला विद्यालय था। उनके लिए वे निरंतर कार्य करती रही। स्त्री शिक्षा के साथ ही विधवाओं की सोचनीय दशा को देखते हुए उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह की शुरुआत भी की और 1854 ईस्वी में 9 विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाया। साथ ही उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए भी आश्रम खोले ताकि कन्या शिशु हत्या को रोका जा सकें। आज देश की बढ़ती कन्या भ्रूण-हत्या व कम होती कन्याओं की जनसंख्या की प्रवृत्ति को देखते हुए उस समय कन्या शिशु हत्या की समस्या पर ध्यान केंद्रित करना और उसे रोकने के प्रयास करना कितना महत्वपूर्णं था? इस बात का अंदाजा लगाना आज भी बहुत मुश्किल हैं। विधवाओं की स्थिति को सुधारने, सती-प्रथा को रोकने और विधवाओं को पुनर्विवाह के लिए भी उन्होंने बहुत प्रयास किए। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति के साथ मिलकर काशीबाई नामक एक गरीब विधवा महिला जो पंडित जाति से ही थी को न केवल आत्महत्या करने से रोका बल्कि उसे अपने घर पर रखकर उसकी देखभाल भी की और समय पर डिलीवरी कराई। उन्होंने उसके पुत्र यशवंत को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और पढ़ाया लिखाया जो बाद में प्रसिद्ध डॉक्टर बना।
उनके पिता खंडो जी और उसकी माता का नाम लक्ष्मी बाई था। सन 1840 ईस्वी में मात्र 9 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह 12 वर्ष के ज्योतिबा फुले से हुआ। महात्मा ज्योतिबा फुले एक महान विचारक, कार्यकर्ता, समाज सुधारक, लेखक व दार्शनिक, संपादक और क्रांतिकारी भी थे। सावित्रीबाई पढ़ी-लिखी नहीं थी। शादी के बाद ज्योतिबा फुले ने ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया। बाद में सावित्रीबाई ने दलित समाज की ही नहीं बल्कि देश की प्रथम शिक्षिका का गौरव भी प्राप्त किया। उस समय लड़कियों की दशा अत्यंत ही दयनीय थी और उन्हें लिखने-पढ़ने की अनुमति भी नहीं थी, इसलिए उन दोनों ने सामाजिक कुरीतियों को तोड़ने के लिए ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने सन् 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला स्त्रियों के लिए पहला विद्यालय था। उनके लिए वे निरंतर कार्य करती रही। स्त्री शिक्षा के साथ ही विधवाओं की सोचनीय दशा को देखते हुए उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह की शुरुआत भी की और 1854 ईस्वी में 9 विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाया। साथ ही उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए भी आश्रम खोले ताकि कन्या शिशु हत्या को रोका जा सकें। आज देश की बढ़ती कन्या भ्रूण-हत्या व कम होती कन्याओं की जनसंख्या की प्रवृत्ति को देखते हुए उस समय कन्या शिशु हत्या की समस्या पर ध्यान केंद्रित करना और उसे रोकने के प्रयास करना कितना महत्वपूर्णं था? इस बात का अंदाजा लगाना आज भी बहुत मुश्किल हैं। विधवाओं की स्थिति को सुधारने, सती-प्रथा को रोकने और विधवाओं को पुनर्विवाह के लिए भी उन्होंने बहुत प्रयास किए। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति के साथ मिलकर काशीबाई नामक एक गरीब विधवा महिला जो पंडित जाति से ही थी को न केवल आत्महत्या करने से रोका बल्कि उसे अपने घर पर रखकर उसकी देखभाल भी की और समय पर डिलीवरी कराई। उन्होंने उसके पुत्र यशवंत को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और पढ़ाया लिखाया जो बाद में प्रसिद्ध डॉक्टर बना।
सावित्रीबाई ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने जीवन काल में पुणे में ही उन्होंने 18 महिला विद्यालय खुले। 1854 ईस्वी में ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने एक अनाथ आश्रम खोला, यह भारत में किसी व्यक्ति द्वारा पहला खोला गया अनाथ आश्रम था। साथ ही अनचाही गर्भावस्था की वजह से होने वाली शिशु हत्या को रोकने के लिए उन्होंने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की भी स्थापना की। समाजोत्थान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए ज्योतिबा फुले ने 24 सितंबर 1875 ईस्वी को अपने अनुयायियों के साथ मिलकर सत्यशोधक समाज नामक संस्था का निर्माण किया, वे स्वयं इसके अध्यक्ष थे।
समाज का विरोध
सावित्रीबाई फुले विद्यालय में लड़कियों को पढ़ाने के लिए भी जाती थी, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। समाज के लोगों के कड़े विरोध का भी उनको सामना करना पड़ा उन्होंने न केवल लोगों की गालियां सही अपितु लोगों के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थरों की भी मार तक झेली। स्कूल जाते समय धर्म के ठेकेदार व स्त्री शिक्षा के विरोधी सावित्रीबाई फुले के ऊपर कूड़ा करकट कीचड़ व गोबर ही नहीं बल्कि मानव-मल भी फेंक देते थे, जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते थे। इसलिए वह अपने साथ एक दूसरी साड़ी भी ले जाती थी जिसे स्कूल में जाकर बदल लेती थी। इन सबके बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी और स्त्री शिक्षा, समाजोद्धार और समाजोत्थान का कार्य करती रही।
मृत्यु
28 सितंबर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके 8 अनुयायियों के साथ ही सावित्रीबाई फुले ने भी सत्यशोधक समाज को दूर-दूर तक पहुंचाने, अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए समाज सेवा का कार्य जारी रखा। वर्ष 1897 में भयंकर प्लेग का रोग फैला। प्लेग के रोगियों की सेवा करते हुए सावित्रीबाई फुले स्वयं भी प्लेग रोग की चपेट में आने से 10 मार्च 1897 ई0 में उनकी मृत्यु हो गई।
उस जमाने में यह सब कार्य करने इतने सरल नहीं थे जितने आज लग सकते हैं। अनेक कठिनाइयों और समाज के प्रबल विरोध के बावजूद भी महिलाओं का जीवन स्तर सुधारने, उन्हें शिक्षित तथा रूढ़िमुक्त करने में सावित्रीबाई फुले जी का जो महत्वपूर्णं योगदान रहा है उसके लिए समाज और देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा।
सावित्रीबाई फुले जी ने बच्चों को कहा था -
कि अब बिल्कुल भी खाली मत बैठो, जाओ शिक्षा प्राप्त करो। सचमुच जहां भी हम लैंगिक समानता के लिए संघर्ष कर रहे हैं वही अंग्रेजों के जमाने में सावित्रीबाई फुले जी ने एक पिछड़ी महिला होते हुए भी समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ जो संघर्ष किया वह अभूतपूर्व और प्रेरणादायक है। ऐसी महान आत्मा को मेरा शत-शत नमन है।
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