ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

शकुन्तरी-चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन "गोरखपुर

!! शकुन्तरी !!

  कज्जल सी रात गहरी,थी निशा भी मौन पसरी,
  नयनों में ना थी निद्रा,पलकों की थिर थी बल्लरी।   
  गिन रही थी व्योम तारें,थीं श्याम पट में उभरी, 
  घन-घटा सी छायी गहरी,कंधों पे केश बिखरी।

 अंगों की सुधि ना कोई,अभिव्यक्ति भी थी सिहरी, 
  चाहत की वेदना अब,चुभ रही थी तीक्ष्ण खंजरी। 
  छलिया की छद्म बातें ,आसक्त  मन  में ठहरीं,
  किंजल्क जाल छितरी, तड़पन में झील मछरी।

  उजरी रही ना चुनरी ,नभ  में थी  श्याम  बदरी, 
  कर उड़ चला परागण,सुमनों का था वो भ्रमरी। 
  चंचल  चपल  थी म्यूरी, घूमें ज्यों झील भँवरी, 
  अंगुरी में थी जो पहरी,अब मुंह चिढ़ाती मुँदरी।

  उन्मुक्त  गंधिका थी, अप्सरा सी नभ से उतरी, 
  दुष्यन्त की प्रिया वो,सुधियों में उसके बिसरी। 
  था दोष उसका इतना,प्रियतम् के सुधि में बिहरी,
  विचरित औ'संतरित थी,सागर से मिलने निर्झरी।

  दुर्वासा हुए थे आहत, स्वागत् में ना थी मुखरी, 
  शापित  हुयी शकुंतरी, ऋषि कण्व नेह पुंँजरी। 
  शनि की दशा की मारी,इतिहास बन के उभरी, 
  जननी बनी भरत की, वो लौटे दिवस में सुँदरी।

   स्वमेव मृगेन्द्रिता का वो शावक बना जो प्रहरी, 
  भू था समग्र अपना,फिर गयी जो रथ की चकरी।  
 
(स्व-रचित) 
चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन "गोरखपुर। 
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