वो लम्हें/पल, ये दौर
(मेरी डायरी के पन्ने)
बचपन के दिन जीवन के सबसे मासूम और बेफिक्र पल होते थे| ये वो समय था जब जिम्मेदारियाँ थी ही नहीं और हर दिन नया अनुभव और खुशी का था। स्कूल जाना, दोस्तों के साथ खेलना, गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार करना, और छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाना, ये सब बचपन के दिनों की खास बातें थी।
बचपन के दिनों में हर चीज़ का एक अलग ही आनंद था—बारिश में भीगना, कागज़ की नाव बनाकर पानी में तैराना, पतंग उड़ाना और रात को बिना किसी चिंता के सो जाना, बिना बताए चोरी से वीoसीoआरo देखना । उस समय दुनिया बहुत बड़ी और सपने अनगिनत होते थे। बचपन के ये दिन हमें जीवन भर याद रहते हैं, क्योंकि यही वो पल होते हैं जब हम सबसे ज्यादा खुश और स्वतंत्र महसूस करते थे। बचपन में जब स्कूल जाना स्कूल में लघुशंका या अन्य किसी का बहाना बनाकर गन्ने में जाकर गन्ने की घटिया बनाकर जेब में छुपा कर क्लास रूम में बैठकर खाना, और फिर पकड़े जाने पर अध्यापक द्वारा मकरंद के डंडे से पिटाई खाना कुछ सुहाने ही पल थे | स्कूल में जब मॉनिटर बना दिया जाता था तो इतनी प्रसन्नता होती थी, कि जैसे प्रधानमंत्री बना दिया गया हो |
बचपन के दोस्त वे लोग होते हैं, जिनके साथ हमारा शुरुआती जीवन बीतता है। ये दोस्त हमारे जीवन के पहले साथी होते हैं, जिनके साथ हम अपने बचपन की यादें साझा करते हैं। इन दोस्तों के साथ खेलना, लड़ना, मस्ती करना और छोटी-छोटी बातों पर हंसना, ये सभी यादें खास होती हैं। बचपन के दोस्तों के साथ बिताए गए पल सरल और मासूमियत से भरे होते हैं, और अक्सर ये दोस्ती जीवन भर चलती रहती है, भले ही समय के साथ हम अलग-अलग रास्तों पर क्यों न चले जाएं।
शरारतें
बचपन की शरारतें जीवन के सबसे बेफिक्र और मजेदार हिस्से होती हैं। ये वही शरारतें होती हैं जिनमें मासूमियत और उत्सुकता छिपी होती है। जैसे बिना किसी डर के पड़ोसी के बगीचे से आम या अमरूद तोड़ना, दोस्तों के साथ छुपन-छुपाई खेलते हुए घर के कोने-कोने में छिप जाना, या कक्षा में चुपके से टीचर की नकल करना।
कई बार घर में किसी की चीज़ छिपा देना या दीवारों पर रंग-बिरंगे चित्र बनाना, ये सब भी बचपन की शरारतों का हिस्सा होता था। कुछ शरारतें इतनी प्यारी होती हैं कि बड़े होने पर जब हम उन दिनों को याद करते हैं तो चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। इन शरारतों का मकसद हमेशा मज़े लेना और हंसते-हंसते दिन बिताना होता है।
बचपन की पिटाई भी अपने आप में एक अलग ही यादगार अनुभव होता है। जब हम शरारतें करते थे या गलती से कुछ नुकसान कर देते थे, तो घरवालों से डांट या कभी-कभी हल्की-फुल्की पिटाई भी हो जाती थी। ये पिटाई अक्सर हमारी सुरक्षा और सुधार के लिए होती थी, हालांकि उस समय हमें ये समझ नहीं आता था।
मसलन, स्कूल से घर देर से लौटने पर, बिना बताए दोस्तों के साथ ज्यादा देर तक बाहर खेलने पर, या घर का कोई सामान तोड़ देने पर पिटाई होना आम बात थी। पिटाई के बाद थोड़ी देर तक रोना और फिर कुछ ही समय में सब भूलकर फिर से खेल में लग जाना, यही बचपन का खास अंदाज होता था।
आज जब हम बड़े हो जाते हैं, तो उन पिटाइयों को भी हंसी-मजाक के साथ याद करते हैं। वो डांट या पिटाई हमें सही रास्ता दिखाने का एक तरीका होती थी, और अब समझ आता है कि वो सब हमारी भलाई के लिए ही था।
बचपन की चोरी अक्सर मासूमियत और शरारत से भरी होती है। ये वो छोटी-छोटी चोरियाँ होती थीं जिनमें न कोई बुरा इरादा होता था और न ही कोई बड़ा नुकसान। जैसे मम्मी के पर्स से बिना पूछे चुपके से चॉकलेट के पैसे निकाल लेना, पड़ोसी के पेड़ से बिना इजाज़त आम या अमरूद तोड़ना, या दोस्तों के टिफिन से उनकी पसंदीदा चीज़ें चोरी-छिपे खा लेना।
कई बार ये चोरी घर की रसोई से मिठाई या बिस्किट उठाने तक ही सीमित रहती थी, और पकड़े जाने पर डर के मारे झूठ बोलने की कोशिश करते थे, लेकिन चेहरे की मासूमियत सब कुछ बयां कर देती थी। चोरी करते समय दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती थीं, लेकिन वो थ्रिल और रोमांच अलग ही मज़ेदार होता था।
आज जब हम उन दिनों को याद करते हैं, तो समझ आता है कि वो मासूमियत भरी चोरियाँ बचपन की मासूम शरारतों का हिस्सा थीं, और यही यादें हंसते-हंसते जीवनभर के लिए हमारे दिल में बस जाती हैं।
बचपन के खेल हमारी सबसे प्यारी और यादगार गतिविधियों में से होते हैं। ये वो खेल होते हैं जिनमें न कोई नियम-कानून होते थे और न ही किसी महंगी चीज़ों की जरूरत। बस हम, हमारे दोस्त और ढेर सारा उत्साह। इन खेलों में मासूमियत और खुशी का अनोखा संगम होता था।
गली-मोहल्लों में खेले जाने वाले कुछ लोकप्रिय खेल:
गिल्ली-डंडा: एक छोटी लकड़ी (गिल्ली) और लंबी लकड़ी (डंडा) के साथ खेले जाने वाला खेल जो बच्चों का सबसे पसंदीदा होता था।
पिट्ठू (सात पत्थर): सात छोटे पत्थरों की मीनार बनाकर उसे गेंद से गिराने और फिर उसे दोबारा बनाने का खेल।
कबड्डी: यह खेल ताकत और चपलता का मिलाजुला रूप होता था, जिसमें टीम वर्क और रणनीति की भी जरूरत होती थी।
छुपन-छुपाई (लुका-छिपी): सबसे मजेदार खेल, जिसमें एक बच्चा आंखें बंद करके गिनती करता था और बाकी बच्चे छुप जाते थे।
सांप-सीढ़ी और लूडो: जब बाहर खेलने का मौका नहीं मिलता था, तो घर पर बैठे हुए इन खेलों में दोस्तों या परिवार के साथ आनंद उठाया जाता था।
कंचे: छोटे कंचों के साथ खेला जाने वाला खेल, जिसमें निशाना लगाकर दूसरे कंचों को मारना होता था।
पकड़म-पकड़ाई: इस खेल में एक खिलाड़ी बाकी सभी को दौड़ाकर पकड़ने की कोशिश करता था, और ये खेल तब तक चलता जब तक सब थक न जाएं।
स्टापू: ज़मीन पर चौकों की आकृति बनाकर, एक पैर से कूदते हुए खेला जाने वाला खेल, जिसमें संतुलन और ध्यान की जरूरत होती थी।
इन खेलों में बिना किसी तकनीक या गैजेट्स के भी, बच्चों के दिलों में खुशी की झलक होती थी। ये खेल न सिर्फ शारीरिक रूप से सक्रिय रखते थे, बल्कि दोस्तों के साथ रिश्ते मजबूत करने का भी जरिया थे।
बचपन की ननिहाल का ज़िक्र आते ही ढेर सारी प्यारी यादें ताजा हो जाती हैं। ननिहाल जाना बच्चों के लिए हमेशा से खास अनुभव होता था, क्योंकि वहां दुलार, मस्ती और आज़ादी का अलग ही माहौल होता था। गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर जाना, जैसे किसी दूसरी दुनिया में कदम रखना लगता था, जहां न कोई पढ़ाई की चिंता होती थी और न ही कोई नियम-कानून।
ननिहाल की खास बातें:
नानी का प्यार: नानी के हाथों का खाना, खासकर उनकी बनाई मिठाइयाँ जैसे लड्डू, पूरी-सब्ज़ी या पकोड़े, बचपन की सबसे स्वादिष्ट यादों में से होते हैं।
मामा-मामी का दुलार: मामा-मामी हमेशा हमें लाड़-प्यार से रखते थे, और कई बार हमारी शरारतों में हमारा साथ भी देते थे।
खेत-खलिहान: अगर ननिहाल गाँव में होता था, तो वहाँ के खेतों में घूमना, नहर में नहाना, और मवेशियों के साथ समय बिताना बेहद रोमांचक अनुभव होता था।
मोहल्ले के दोस्त: ननिहाल के पड़ोस के बच्चों के साथ नई-नई दोस्ती करना और उनके साथ दिनभर खेलते रहना एक अनमोल अनुभव होता था।
नानी की कहानियाँ: रात को नानी के पास बैठकर उनके जीवन की कहानियाँ सुनना, जो कभी राजा-रानी की होती थीं, तो कभी भूत-प्रेत या परियों की। ये कहानियाँ हमेशा बच्चों की कल्पना को उड़ान देती थीं।
ढेर सारी आज़ादी: ननिहाल में मां-पापा की सख्ती से दूर, मनचाही आज़ादी मिलती थी। देर रात तक जागना, ज़्यादा टीवी देखना, और खाने-पीने में कोई रोक-टोक नहीं होती थी।
बचपन में जब मोबाइल नहीं था, तब दिन बेहद सरल और सक्रिय तरीके से बीतता था। हर दिन में एक ताजगी और उत्साह भरा होता था। लोग एक-दूसरे से अधिक जुड़े हुए थे, और असली दुनिया में वक्त बिताना ही सबसे बड़ा आनंद होता था। बच्चों के पास ढेर सारे तरीके होते थे दिन बिताने के, और वो सभी तकनीक या गैजेट्स पर निर्भर नहीं होते थे।
कैसे बीतता था बचपन का दिन:
1. सुबह की शुरुआत: सुबह जल्दी उठकर स्कूल जाने की तैयारी होती थी। उस वक्त टीवी पर कार्टून या रामायण-महाभारत जैसे कार्यक्रम देखने का अलग ही मज़ा होता था। स्कूल जाते समय दोस्तों से रास्ते में मिलने का उत्साह, और साथ में बातें करते हुए स्कूल जाना दिन की शुरुआत को खास बना देता था।
2. स्कूल की मस्ती: स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ दोस्तों के साथ की गई शरारतें, टीचर के साथ मजाक, और लंच ब्रेक में खेल-कूद दिन को रंगीन बना देता था। स्कूल के खेलकूद में कबड्डी, खो-खो, और फुटबॉल जैसे खेल आम होते थे।
3. शाम के खेल: स्कूल से लौटने के बाद का समय पूरी तरह से खेल-कूद के लिए होता था। मोहल्ले के बच्चों के साथ मिलकर गली में क्रिकेट, पिट्ठू, छुपन-छुपाई, गिल्ली-डंडा जैसे खेल खेले जाते थे। इस दौरान न समय का होश होता था और न कोई चिंता। बस दोस्तों के साथ खेलना ही सबसे बड़ी खुशी होती थी।
4. बाहरी गतिविधियाँ: जब मोबाइल और इंटरनेट नहीं था, तब ज्यादातर समय बाहर की गतिविधियों में बितता था। बच्चे अपनी क्रिएटिविटी का इस्तेमाल करते थे—कभी पतंग उड़ाते, कभी कागज की नाव बनाकर बारिश में तैराते। कई बार छोटे-छोटे एडवेंचर होते थे, जैसे पेड़ पर चढ़ना या नदी-नहर में तैरना सीखना।
5. परिवार के साथ समय: शाम होते ही बच्चे घर लौटते थे, और रात का समय परिवार के साथ बितता था। घर के बड़े-बुजुर्गों के साथ बैठकर बातें करना, या उनके साथ कुछ खेल खेलना एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। रात में दादी-नानी की कहानियाँ सुनना भी खास होता था।
6. टीवी का आनंद: उस समय टीवी पर सीमित चैनल होते थे, लेकिन उनका मज़ा कुछ और ही था। बच्चों के लिए कार्टून शो या रविवार को आने वाली फिल्में बहुत बड़ा आकर्षण होती थीं। पूरा परिवार एकसाथ बैठकर दूरदर्शन पर कार्यक्रम देखता था, जो आपसी संबंधों को मजबूत करता था।
7. किताबों और कॉमिक्स का दौर: मोबाइल की जगह उस समय किताबें और कॉमिक्स पढ़ी जाती थीं। चाचा चौधरी, नागराज, फैंटम, सुपर कमांडो ध्रुव जैसे कॉमिक्स बच्चों में बहुत लोकप्रिय थे। इसके अलावा, कई बार बच्चे लाइब्रेरी जाकर किताबें पढ़ते थे या स्कूल की किताबों से ही कहानियाँ पढ़ने का आनंद उठाते थे।
बचपन में बिना मोबाइल के भी जीवन बेहद सजीव, क्रिएटिव, और सामाजिक था। बच्चों का समय दोस्तों, परिवार, और बाहर की दुनिया के साथ जुड़कर बीतता था, जो उनकी जिंदगी को समृद्ध और यादगार बनाता था।
बचपन का नटखट प्यार मासूमियत और शरारतों से भरा होता था, जिसमें न कोई गंभीरता होती थी और न ही कोई ज़िम्मेदारियों का एहसास। ये प्यार स्कूल के दोस्तों या पड़ोस के किसी खास दोस्त के प्रति एक अनकही और भोली-भाली भावना होती थी, जिसमें दिल में हल्की-सी धड़कन और चेहरे पर शरमाहट होती थी। उस समय का प्यार, जिसे हम "क्रश" भी कह सकते हैं, बिना किसी अपेक्षा के बस एक मीठी-सी भावना होती थी।
बचपन के नटखट प्यार की कुछ खास बातें:
1. भोलेपन से भरा: बचपन का प्यार बेहद मासूम और बिना किसी स्वार्थ के होता था। हमें बस किसी के साथ वक्त बिताने, उसकी छोटी-छोटी बातें नोटिस करने, और उसकी तारीफ करने में खुशी मिलती थी। कई बार ये प्यार सिर्फ आंखों के इशारों या मुस्कुराहटों तक सीमित रहता था।
2. स्कूल का प्यार: अक्सर ये नटखट प्यार स्कूल में शुरू होता था। किसी खास सहपाठी को देखकर दिल का तेजी से धड़कना, उसकी बेंच के पास बैठने की कोशिश करना, या उसकी कॉपी से पेंसिल मांगने के बहाने ढूंढना, ये सब बचपन के प्यार की प्यारी निशानियाँ होती थीं।
3. खतों का दौर: उस समय व्हाट्सएप या मैसेज नहीं होते थे, तो बच्चे अक्सर छोटे-छोटे खत लिखते थे या एक-दूसरे को चुपके से नोट्स पास करते थे। ये खत बहुत साधारण होते थे, जिसमें सिर्फ एक "हाय" या "तुम कैसी हो?" जैसा मासूम सा सवाल होता था।
4. शरारतें और ध्यान खींचने की कोशिश: बचपन में प्यार जताने का तरीका भी बहुत शरारती होता था। कोई चुटकी काटकर, तो कोई बाल खींचकर या किसी की किताब छुपाकर प्यार जताता था। ये शरारतें इस बात का संकेत होती थीं कि वो हमें खास महसूस कराना चाहता है।
5. गोपनीयता और शर्म: बचपन का प्यार अक्सर सबसे छिपाकर रखा जाता था। अगर कोई दोस्त या सहपाठी इस बात को जान लेता, तो शर्म के मारे चेहरा लाल हो जाता था। किसी को अपना पसंदीदा व्यक्ति बता देना भी बड़ी बात होती थी, और दोस्त अक्सर इसे रहस्य बनाए रखते थे।
6. प्यारे-प्यारे गिफ्ट्स: बचपन में अगर किसी से प्यार हो जाता था, तो उसे छोटे-छोटे गिफ्ट्स देना, जैसे पेंसिल, रबर, या चॉकलेट, एक खास तरीका होता था अपने दिल की बात कहने का। इन गिफ्ट्स में एक मासूमियत और निश्छलता छिपी होती थी।
7. दोस्तों के साथ चर्चा: अक्सर ये प्यार दोस्तों के बीच चर्चा का विषय बन जाता था। दोस्त एक-दूसरे को छेड़ते थे, और कभी-कभी वो उस खास व्यक्ति तक आपकी भावनाओं को पहुंचाने में मदद भी करते थे।
बचपन का नटखट प्यार हल्का-फुल्का, शरारतों से भरा और बिलकुल निष्कपट होता था। इसमें किसी तरह का बड़प्पन या गंभीरता नहीं होती थी, बस एक प्यारी-सी भावना थी, जो समय के साथ यादों में तब्दील हो जाती थी। ये प्यार हमें जिंदगीभर हंसी और खुशी के पल देता रहता है, जब भी हम उन मासूम पलों को याद करते हैं।
बीते लम्हें जीवन के वे पल होते हैं जो कभी लौटकर नहीं आते, लेकिन अपनी यादों में हमेशा जिंदा रहते हैं। ये लम्हें अक्सर हमारे बचपन, किशोरावस्था, या किसी खास समय के होते हैं, जो हमें हंसी, खुशी, या कभी-कभी उदासी से भर देते हैं। हर बीता हुआ लम्हा हमें कुछ सिखाकर जाता है और हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है।
बीते लम्हों की खास बातें:
1. बचपन की यादें: बचपन के वो दिन, जब दुनिया इतनी बड़ी और जादुई लगती थी। दोस्तों के साथ खेलना, स्कूल की मस्ती, छुट्टियों में नानी के घर जाना, और वो बेफिक्र समय। ये लम्हें आज भी हमारे दिलों में एक खास जगह रखते हैं।
2. पहली दोस्ती: स्कूल या मोहल्ले में बनी पहली दोस्ती, जिसमें विश्वास और मासूमियत होती थी। दोस्तों के साथ हंसी-खुशी के पल बिताना और छोटी-छोटी बातों पर रूठना-मनाना, ये सब लम्हें यादों में बस जाते हैं।
3. पहला प्यार: किशोरावस्था का पहला प्यार, जिसमें दिल का तेज धड़कना, किसी को देखकर मुस्कुराना, और अपनी भावनाओं को छिपाने की कोशिश करना। ये लम्हें भले ही बीत जाते हैं, लेकिन दिल में हमेशा एक खास एहसास छोड़ जाते हैं।
4. खास तीज-त्यौहार: परिवार के साथ बिताए गए त्योहारों के लम्हें, जब पूरे घर में खुशी और रौनक होती थी। होली, दिवाली, या ईद जैसे त्यौहार, जब पूरा परिवार एक साथ इकट्ठा होता था और मिल-जुलकर खुशियां मनाई जाती थीं।
5. स्कूल और कॉलेज के दिन: स्कूल और कॉलेज के वो सुनहरे दिन, जब दोस्तों के साथ बिताए गए पल, मस्ती, शरारतें, और पढ़ाई से जुड़े तनाव सभी मिलकर जीवन को रंगीन बना देते थे। ये वो लम्हें होते हैं जिनकी यादें हमें जीवनभर हंसाती रहती हैं।
6. पुराने गीत और फिल्में: जब हम अपने पुराने पसंदीदा गाने या फिल्में देखते-सुनते हैं, तो वो हमें बीते लम्हों की तरफ वापस ले जाते हैं। इन गीतों और फिल्मों के साथ जुड़े लम्हें हमें उस समय के माहौल और भावनाओं की याद दिलाते हैं।
7. परिवार के साथ समय: बीते हुए लम्हों में परिवार के साथ बिताया गया समय सबसे कीमती होता है। माता-पिता के साथ बिताए गए पल, उनके साथ की गई बातें, और घर के बुजुर्गों के साथ बिताया समय हमारी यादों का खास हिस्सा बनते हैं।
8. सपनों की दुनिया: बचपन और किशोरावस्था में देखे गए सपने, जिनमें हम बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं रखते थे, वे भी बीते हुए लम्हों का हिस्सा होते हैं। उन सपनों को पाने की कोशिश और उनके पीछे छिपी मासूमियत यादों में हमेशा जिंदा रहती है।
बीते लम्हे जीवन के वो अनमोल मोती होते हैं, जिन्हें हम समय-समय पर याद करते हैं और उनमें खो जाते हैं। ये लम्हें भले ही वापस न आएं, लेकिन इनकी यादें हमें जीवनभर प्रेरणा और खुशी देती रहती हैं।
लगता है थक चुके हैं जिंदगी से
ज़िंदगी के इस सफर में, थकान सी घेर लेती है,
हर मोड़ पर मुश्किलें, उम्मीदों को ले डूबती हैं।
ख्वाबों की चमक फीकी, हौसले की बातें क्यूँ,
सपनों का रंग छिटकता, हकीकत में आ जाती है।
हर सुबह की पहली किरण, एक नई शुरुआत की आस,
फिर भी दिल में उठती है, खामोशियों की आवाज़।
रास्तों में कांटे बिछे हैं, चलना है फिर भी हमें,
ज़िंदगी की इस दौड़ में, थकावट है सबके मन में।
पलकों की छांव तले, कोई ख़ुशी छिपी है,
जज़्बात की जंग में, कभी हार भी मिली है।
फिर भी हम मुस्कुराते हैं, आसमान की ओर देखते,
क्योंकि थकान के बाद भी, ख़ुद को संभालना जानते।
ज़िंदगी के इस कठिन सफर में,
चलते रहना है हमें,
थक चुके हैं, पर हिम्मत नहीं हारते,
हर दर्द के बाद फिर से, खुद को संवारते।
थकान को मिटाकर, उठते हैं फिर से,
सपनों की तलाश में, निकलते हैं फिर से।
क्योंकि ज़िंदगी है एक किताब,
जिसमें हर पन्ना एक नई कहानी लिखता है,
और हम हैं उसके लेखक,
हर लम्हा एक नई शुरुआत का मौका देता है।
लेखक
अनुज प्रताप सिंह सूर्यवंशी
पूरनपुर, पीलीभीत (उoप्रo)
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