ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

नित आती पर्वों की बेला-पंकज सिंह "दिनकर" (अर्कवंशी) लखनऊ उत्तर प्रदेश

नित आती पर्वों की बेला

नित  आती पर्वों  की  बेला खिलती क्यारी  क्यारी।
कभी दिवाली कभी दशहरा खिले नित्य  फुलवारी।
प्रभू  राम  वापस  घर  आए  पूर्ण   हुआ   वनवास।
चौदह   वर्ष   रहे  जंगल   में   बना   वहीं  आवास।

कष्ट  बहुत  झेले   रघुवर  ने  पर गई  नही मुस्कान। 
राह  सदा  संघर्ष  की  चलना  दिया  यहीं फरमान।
जनक   दुलारी वन वन भटकी   प्रभु राम   के संग।
किया   समर्पण  बहुत लखन ने प्रभू   राम के अंग।

भरत    नही   बैठे     गद्दी  पर   ऐसा   निश्चल प्रेम।
प्रभू   राम   की    लिए   खड़ाऊ पूजे नित   सप्रेम।
भ्रात   शत्रुघ्न नित्य   ह्रदय   से होते   भाव विभोर।
आंखो से  आसूं  नित   आते  हो  जाते   झकझोर।

कैसा  निश्चल प्रेम भरत   में अपने भ्रात के खातिर। 
अपनी मां से   लड़ भिड़ जाते   बतलाते हैं शातिर।
दिनकर  अद्भुत  मानस   गीता  अद्भुत   मेरे   पर्व।
भारत   की  पावन  संस्कृति   हम  सब  करते गर्व।।

रचनाकर✍️
पंकज सिंह "दिनकर"
(अर्कवंशी) लखनऊ उत्तर प्रदेश

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