ख़ालीपन-मुकेश चंचल गड़वार, बलिया-यूपी०

 ....... ख़ालीपन .......  
तुम्हें पता है मेरे घर के ठीक सामने एक बड़ा सा पेड़ हुआ करता था। 
उस पेड़ पर एक प्यारी सी चिड़िया रहती थी। दिनभर होती उसकी चहल-पहल से मेरा मन लगा रहता और शायद पेड़ का भी। वो चिड़िया जब कभी देर तक नहीं लौट कर आती, तो पेड़ उदास हो जाता ऐसा मुझे उसकी मुरझाई हुई टहनियों से महसूस होता और जब दूर से वो चिड़िया आती हुई दिखाई पड़ती, तो पेड़ की टहनियां झूम उठतीं। ठीक वैसे ही जैसे जब कभी तुम बिना बताए कई दिन तक नहीं आतीं और फिर जब कई दिनों बाद तुम अचानक आ जातीं, तो मेरा मन भी झूम उठता तुम्हें देखकर। 
तुम कहां थीं ? 
क्यों गई थीं ? 
बताया क्यों नहीं ? 
अब ऐसे दोबारा कभी न जाना.. 
जैसे कई सवाल पूछने का हक़दार नहीं था मैं। मेरे लिए बस इतना भर काफ़ी था कि तुम थी मेरे पास मेरे आसपास। जैसे वो चिड़िया थी पेड़ के आसपास। पेड़ ख़ुश रहता था चिड़िया के आसपास होने से। जब भी कभी बारिश, तूफ़ान या तेज हवाएं चलती तो चिड़िया खुद को पेड़ की टहनियों में छिपा लेती। एक रोज़ वो चिड़िया कही उड़कर चली गई। पेड़ देर तक इंतज़ार करता रहा.. रात बीती, फिर दिन बीता.. ऐसे करते-करते कई दिन, कई हफ़्ते…. महीने और साल बीत गए, मगर वो चिड़िया दोबारा कभी नहीं आई उस पेड़ पर। 
पिछले साल की ही बात है एक रोज़ जब मैं सुबह उठा और खिड़की से देखा कि वो पेड़ गिर गया है। पता करने पर लोगों ने बताया कि रात में तेज आंधी चली थी। कुछ लोग सवालिया बातें भी कर रहे थे कि आसपास के छोटे-मोटे पेड़ों का कुछ नहीं बिगड़ा और ये इतना बड़ा पेड़ कैसे गिर गया। लोग हैरान थे…. पर मैं हैरान नहीं था.. मैं बेचैन था। मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी ये सोचकर कि कोई उस भरे पेड़ के ख़ालीपन को नहीं देख पाया। कोई उस पेड़ के दुःख को नहीं भांप पाया। 

किसी ख़ास के छोड़ जाने के बाद हमारे भीतर से भी बहुत कुछ छूटता जाता है और एक दिन हम अंदर से पूरी तरह ख़ाली हो जाते हैं। इतने ख़ाली की कई बार हवा का एक झोंका ही काफ़ी होता है हमारे बिखर जाने के लिए। 


मुकेश चंचल 
गड़वार, बलिया-यूपी०

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