राजनीतिक विष और बर्बाद युवा !!
गाँव मे फलाना सुबह- सुबह टहलते हुए गाँव के ही कुछ नौजवानों में से पूछते हैं "का रे , बबुआ का करत बाड़े आजकाल?
युवक के पास कोई जवाब नही है फिर भी बना बनाया जवाब देता है की "! एसएससी अउरी सिपाही के तैयारी करत बानी..
फलाना फिर पूछते है कि "कइसन तैयारी करत बाड़े,तू त दिन भर चट्टी-चौराहा अउरी घूमते लउके ले...
अब युवक चुप है और फलाना से कनकी काटकर मुँह फेर लेता है...
यही वास्तविकता है जिसे युवाओं ने अपनी नियति मान लिया है..
खैर......
भटके हुए युवा महज कश्मीर में नहीं है बल्कि ये जमात देश के हर कोने में है जो हाईस्कूल तक या उससे अधिक cbse से पढ़ते है फिर किसी भी अनजाने विश्वविद्यालय या गाँव गिराने के किसी महाविद्यालय से बी०ए०. करते है फिर अपना दायित्व समझते हुए किसी भी चुटपन फलाना भैया नेता के साथ झंडा ढोता है नारे लगारवता है या उसकी जमात में घूमता है।
और हर पार्टी का हर नेता इस भेड़ की चाल का भरपूर लाभ भी ले रहा है, कोई सदस्यता अभियान चलाकर सबको पार्टी की डिग्रियां बांट रहा है तो कोई नौकरी का लालच देकर नारे लगवाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है।
आजकल कोई भी चर्चा ‘युवा’शब्द से होकर ही आगे गुजरती है। किसी भी चर्चा में युवा होता है लेकिन चर्चा मुकम्मल तब होती जब उसमें युवा का, युवाओं के लिए- बुजुर्गों के द्वारा बात हो ।
रोज़गार, नेता, शिक्षा और यहाँ तक की देश का केंद्र भी युवा है। भारत एक युवा देश है, भटके हुए युवा, सहमे हुए युवा, रोज़गार मांगते युवा, कंपीटीशन की तैयारी में लगे युवा, सड़कों पर आंदोलन करते हुए युवा, कॉल सेंटर में ज़िंदगी खपाते युवा, जहां नज़र दौड़ाओ वहां युवा ही युवा है। हर नेता की रैली में युवा और हर नेता की ज़ुबान पर युवा है। ऐसा लगता है कि देश में युवा ही युवा है और भारत की राजनीतिक जमात युवाओं के लिए चिंतित और समर्पित है। इसी समर्पण का नतीजा देखिए कि भारत में ‘युवा दिवस’भी इस जोश के साथ मनाया जाता है कि मानों अगले दिन से युवाओं के सारे सपने पूरे हो जाएंगे , टीवी से लेकर मंच तक युवा-युवा-युवा के शोर के बीच एक दिन इस युवा की नज़र संसद की कार्यवाही के दौरान टेबल पर थप-थपाते हाथों पर गई तो देखा कि देश की संसद में युवा सफ़ेद चावलों के बीच कंकड़ के समान नज़र आ रहे थे। मतलब युवा देश की संसद से युवा ही गायब है?
फिर किसलिए झंडा ढोते हो, अगर राजनीति ही करनी है तो तुम्हारी खुद की क्या विचारधारा है।
राजनीति समर्पण मांगती है फिर तुम ऐसी पृष्ठभूमि से आते हो जहां तुम्हारे पिता इस सपने के साथ बड़े किये है कि उन्हें खेत-खलिहान,मजदूरी,रिक्शा चलाने,दूध बेचने और धूप में तपने से निजात मिले सके ...
तुम्हारी दो कौड़ी की राजनीति और झंडा ढोने से तुम्हारे पिता की हड्डियों को गला दिया, कल परिवार इस उम्मीद में था कि तुम पढ़ लिखकर दो पैसा लाते और बहन की शादी में पिता का सहयोग करते पर तुम सहयोग कहा से करते तुमने तो अपने खर्चे से उन्हें कर्ज में डाल दिया।
अंत मे उन 10 लोगो की नमस्कारी इतनी भारी पड़ेगी की दुनिया हिल जाएगी, ये एक भरम है जो समय के साथ टूटता है, तुम्हारा भी टूटेगा और जब टूटेगा तो पीछे बहुत कुछ छूट गया होगा, फिर वही फलाना याद आएंगे।
मुकेश चंचल
गड़वार, बलिया-यूपी०
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