जलवायु परिवर्तन का डेयरी उत्पादन पर प्रभाव
विजय गर्ग
तापमान आर्द्रता सूचकांक एक व्यापक और सर्वस्वीकृत प्रतिदर्श है। यह केवल तापमान और आर्द्रता के मानों पर ही आधारित होता है तथा यह पशु उत्पादकता को प्रभावित करने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारक जैसे ओसांक, वायु वेग एवं सौर विकिरण आदि की उपेक्षा करता है। स्वदेशी नस्ल की गायों की तुलना में, वर्णसंकर गायों तथा भैंसों में उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर ग्रीष्म तनाव का प्रभाव अधिक परिलक्षित होता है। डेरी पशुओं में ग्रीष्म तनाव के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रभाव दिखाई देते हैं अर्थात समस्थिति को बनाए रखने हेतु ऊर्जा उपयोग में वृद्धि के फलस्वरूप पशु उत्पादकता में गिरावट, तथा उपलब्ध चारे में जल विलेय कार्बोहाइड्रेट एवं नाइट्रोजन के संघटन में विचलन के कारण चारे की गुणवत्ता में कमी, दोनों ही पशु उत्पादकता को प्रभावित करती हैं। ग्रीष्म ऋतु में चारा तथा चारा संसाधनों की कमी, चारा फसलों में उच्च लिग्निकरण, शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में जल की सीमित उपलब्धता के अतिरिक्त शुष्क चारे की अल्प-पाचकता आदि सभी कारक पशु उत्पादन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार देश में तापमान वृद्धि की दर वैश्विक के औसत काफी नजदीक है। वर्ष 2020 में विगत शताब्दी के वार्षिक तापमान एवं वर्षा के अध्ययनों से यह ज्ञात होता है कि एक ओर जहां वर्ष 1901 से 2019 के मध्य वार्षिक अधिकतम, न्यूनतम एवं मध्यम तापमानों वृद्धि हुई है तो वहीं दूसरी ओर वार्षिक वर्षा में कमी हुई है। वर्ष 1950 से 2015 के मध्य, मानसून वर्षा में 6 की कमी हुई, जिससे मध्य भारत में भारी वर्षा में वृद्धि हुई तथा अकाल एवं सूखे की घटनाओं में वृद्धि हुई। वर्ष 1951 से 2018 के मध्य, चक्रवातों की अपेक्षाकृत कम घटनाओं के बाद भी वर्ष 2000 से 2018 के मध्य, पूर्व तट पर चक्रवातों एवं तूफानों में वृद्धि हुई ।
पशुओं में उच्च ऊष्मीय तनाव के प्रभावः पशुओं में उच्च ऊष्मीय तनाव के फलस्वरूप दैनिक शारीरिक भार वृद्धि में गिरावट, खाद्य परिवर्तन दक्षता में गिरावट, वृद्धि दर में गिरावट, दुग्ध उत्पादन में गिरावट, प्रजनन क्षमता में गिरावट, मांसपेशीय गुणवत्ता में गिरावट, रोग घटनाओं में वृद्धि, दुग्धकाल अवधि में गिरावट एवं बाँझपन आदि परिलक्षित होते हैं। डेरी पशुओं विशेषकर उच्च उत्पादक डेरी पशुओं में जलवायवीय परिवर्तनों के प्रभाव दुग्ध के उत्पादन एवं संघटन पर परिलक्षित होते हैं। उच्च उत्पादक डेरी पशु अपनी उच्च उपापचय दर के कारण उच्च ऊष्मीय तनाव से अधिक प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त पशु की खुराक में कमी, खाद्य परिवर्तन दक्षता में कमी एवं परिवर्तित कार्यिकीय प्रतिक्रियाऐं आदि भी उच्च तापमान- आर्द्रता सूचकांक स्तर के परिणाम स्वरूप परिलक्षित होती हैं। ऊष्मीय तनाव के दौरान, तापमान एवं आर्द्रता में वृद्धि, पशुओं की प्रजनन क्षमता को प्रभावित करती है। गायों में तापमान आर्द्रता सूचकांक 72- 73 और भैंसों में 75 से अधिक होने पर अधिक ऊष्मीय तनाव से गर्भधारण दर में गिरावट आती हैं। इसके अतिरिक्त उच्च ऊष्मीय तनाव के कारण युग्मक जनन एवं यौन व्यवहार में गिरावट, गर्भाशयीय मृत्युदर में वृद्धि, गर्भपात में वृध्दि एवं जनन अंतराल में वृद्धि परिलक्षित होती है। ऊष्मीय तनाव के कारण पशुओं में मदचक्र अवधि में कमी, मदकालहीनता एवं शांत मदकाल की घटनाओं में वृद्धि होती है। डेरी पशुओं में प्रायः उच्च ऊष्मीय तनाव से उत्पन्न उपपचयी, शारीरिक, हार्मोनिक एवं प्रतिरक्षण परिवर्तनों के कारण स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं। शारीरिक परिवर्तन के फलस्वरूप, रूमेन आमाशय की गतिशीलता एवं चारा ग्रहण क्षमता में कमी होती है। सम शीतोष्ण जलवायवीय परिस्थितियों में 25-26° सेल्सियस से अधिक तापमान होने पर चारा ग्रहण क्षमता में गायों एवं भैंसों में क्रमशः 40 व 8-10% की कमी परिलक्षित होती है जबकि बकरियों में 40° सेल्सियस से अधिक तापमान होने पर चारा ग्रहण क्षमता में 22- 35% की कमी होती है। इसके अतिरिक्त उच्च ऊष्मीय तनाव के प्रत्यक्ष प्रभावों में संक्रामक रोगों से ग्रस्त होने की दर में अधिकता एवं प्रतिरक्षा तंत्र की दुर्बलता सम्मिलित है जबकि अप्रत्यक्ष प्रभाव में रोगाणु वाहकों की संख्या में वृद्धि एवं पशुओं की भावी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी तथा प्राणिजन्य रोगों के प्रति अधिक संवेदनशीलता आदि परिलक्षित होते हैं। ग्रीष्म तनाव के दौरान कृमि संक्रमण, थनैला रोग, खुरपका-मुंहपका रोग तथा बकरियों में प्रायः क्लिनी संक्रमण में वृद्धि होती है। तापमान में वृद्धि, विशेषकर झुलसाने वाली गर्मी, नर पशुओं में जलवायवीय तनाव उत्पन्न करती है जो शुक्राणुओं की निषेचन क्षमता को दीर्घकाल तक प्रभावित करती है। शारीरिक एवं वृषणीय ताप में वृद्धि कोशिकीय उपापचय को परिवर्तित करते हैं जिससे वृषण क्षय में वृद्धि एवं शुक्राणु की आयु में कमी होती है।
ऊष्मीय तनाव को कम करने हेतु रणनीतियां: पशुपलकों एवं किसानों द्वारा प्रायः प्रयोग में जाने वाली रणनीतियों जैसे पशुओं को ताजा चारा और पानी प्रदान करना, सुबह और शाम के अपेक्षाकृत ठंडे घंटों के दौरान पशु को भोजन देना एवं दूध दोहना, आहार में अतिरिक्त सांद्र मिश्रण प्रदान करना, अतिरिक्त छाया एवं स्नान प्रदान करना तथा पशु के रहने के लिये पर्याप्त स्थान उपलब्ध करवाना आदि ऊष्मीय तनाव प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके अतिरिक्त क्षेत्र-विशिष्ट प्रजनन रणनीतियों के माध्यम से ऊष्मा सहिष्णु पशुधन का चयन महत्वपूर्ण है। सूक्ष्म जलवायवीय संशोधनों में 'वाष्पीकरण शीतलन' जैसी प्रणालियों का उपयोग कर, ऊष्मा अपव्यय तंत्र और पर्यावरणीय शीतलन में सुधार किया जा सकता है। पोषण प्रबंधन के उपाय, दुग्ध उत्पादन क्षमता एवं प्रजनन क्षमता को बढ़ाने हेतु ऊष्मा तनाव के दौरान अधिक पोषक तत्वों से युक्त भोजन के कम मात्रा में सेवन को संबोधित करता है। आनुवंशिक संशोधन ऊष्मा सहिष्णु, उच्च उत्पादन करने वाली नस्लों की पहचान करने और चयन करने पर ध्यान केंद्रित करता है जिसमें चमड़ी के रंग और बालों के रंग को वरीयता देना निहित है। गहरे रंग की चमड़ी एवं लंबे बाल वाले गौ वंशीय पशु ऊष्मीय तनाव के लिए कम अनुकूल होते हैं। हल्के रंग की चमड़ी एवं छोटे बाल वाली थारपारकर गाय ऊष्मीय तनाव के प्रति अनुकूलनशीलता के श्रेष्ठतम उदाहरणों में से एक है। जलवायु परिवर्तन के वर्तमान परिदृश्य में पशुओं के मध्य आनुवंशिक जैव विविधता बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
निष्कर्षः जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव वैश्विक स्तर पर एवं भारत में तापमान तथा भारी वर्षा में वृद्धि के रूप में सर्वविदित है। यह परिवर्तन डेरी उद्योग पर सार्थक प्रभाव दर्शाते है। डेरी पशुओं में ऊष्मीय तनाव, दूग्ध उत्पादन, दुग्ध गुणवत्ता, कोलोस्ट्रम गुणवत्ता, प्रजनन क्षमता, बछड़े के विकास और डेरी पशुओं के समग्र स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जिससे उद्योग में आर्थिक हानि होती है। उच्च दुग्ध उत्पादकता वाले डेरी पशुओं मेंए निम्न दुग्ध उत्पादकता वाले डेरी पशुओं के अपेक्षाकृत दूग्ध उत्पादन और प्रजनन क्षमता में गिरावट अधिक परिलक्षित होती है। भैंस, उचित छाया एवं जलाशय सुविधाओं के साथ गर्म-आद्र वातावरणीय परिस्थितियों में अपेक्षाकृत अधिक संवहनीयता प्रदर्शित करती है। ऊष्मीय तनाव के प्रभावी नियंत्रण की रणनीतियों में पर्यावरण संवर्धन, शीतलन तंत्र, पोषण में परिवर्तन, तनाव-संबंधित पूरक और हार्मोनल उपचार सम्मिलित हैं। एकीकृत फसल-पशुधन प्रणाली एवं ऊष्मा सहिष्णु देशी नस्लों हेतु प्रभावी एवं सक्षम नीतियां बनाने के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का व्यापक अध्ययन महत्वपूर्ण है। पशुधन उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पर्यावरण मानकों, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और स्थिर पशुधन उत्पादन प्रणालियों को ध्यान में रखते हुए उचित रणनीतिक योजना आवश्यक है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल
शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद
एमएचआर मलोट पंजाब