मेरी कविता
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अनसुनी कहानियों सी,
मैं भी किसी कहानी की,
वह पात्र हूँ,
जिसके जिम्मे,
जिम्मेरदरिया है,
कर्म और उत्तरदायित्व है,
पीड़ा है,
दुख दर्द है,
लेकिन,
खुशिया नही है।
अदृश्य तारो की तरह,
चमकती कंचन तो हूँ,
लेकिन,
जैसे दिए कि नीचे,
अंधेरा रहता है,
उसी तरह मैं भी हूँ।
सागर की तरह,
अथाह गहराई सी लिए हुए,
जैसे नदिया,
गिरते हुए, अपना भार देकर,
मुक्त हो जाती,
उसी तरह,
मेरे अधिकार, कर्तव्य रूप में,
समाहित हो जाते है।
मेरे लिए आंसू और खुशी में,
अंतर करना मुश्किल है,
सब कुछ ईश्वर के अधीन,
एक फ़िल्म की चलती हुई रील की तरह,
मैं भी चलती जा रही।
हाँ, मैं कंचन हूँ।
✍️
कंचन मिश्रा
शाहजहाँपुर, उ. प्र.
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