ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

शीर्षक:- ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत-हरिश्चन्द्र त्रिपाठी 'हरीश

शीर्षक:- ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत।


भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु,सबको नमन हमारा है,
ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत,तुमने इसे सवॉरा है।टेक।

सत्य-सनातन के प्रहरी तुम,
शत-शत वन्दन-अभिनन्दन।
भाल सजाती अलख जगाती,
भरत-भूमि की माटी चन्दन।
काश्मीर से अन्तरीप तक,होता गुणगान तुम्हारा है।
भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु,सबको नमन हमारा है,
ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत,तुमने इसे सवॉरा है।1।

खण्ड-खण्ड करने को आतुर,
भितरघात कर रहे विधर्मी।
पुनः जगी नव राष्ट्र-चेतना,
शून्य करेंगे हर सरगर्मी।
भौतिकता के छद्म वेश में,भारत को ललकारा है।
भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु,सबको नमन हमाया है,
ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत,तुमने इसे सवॉरा है।2।

सुरभि लुटाती फूल की घाटी,
वैरी-शीश कुचलती सेना।
वन्देमातरम गूॅज रहा है,
सम्बल निज पौरुष का देना।
गंगादिक नदियों का निर्मल,पावन सुखद किनारा है।
भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु,सबको नमन हमारा है,
ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत,तुमने इसे सवॉरा है।3।

जो मिली विरासत तुमसे हमको,
हम सब उस पर इतराते हैं।
नील गगन के पार तिरंगा,
हम मिल-जुलकर फहराते हैं।
सौगन्ध तुम्हारे चरणों की,प्यारा देश हमारा है।
भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु,सबको नमन हमारा है,
ऋणी तुम्हारा कण-कण भारत,तुमने इसे सवॉरा है।4।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी 'हरीश;
रायबरेली / द्वारका-नई दिल्ली

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