मैं स्याही हूँ, मेरी दुनिया इक काग़ज़ सी है,
हर ख्वाब, हर दर्द यहाँ लिखी किताब सी है।
मेरे मन की मौन माया में, मचलती मधुर मधुर कल्पना,
मेरी दुनिया दर्पण जैसी, दिखती है बस स्वप्निक कल्पना।
मैं हूँ, जैसे दीपक की लौ, और दुनिया अंधियारे जैसी,
जो खुद जलकर राह दिखाए, फिर भी लगे उजाले से ख्वाबी।
दुनिया मेरी दर्पण है, पर अक्स मेरा धुँधला सा,
मैं वही हूँ जो मुस्कान में भी ढूँढे आँसू का सिलसिला।
मैं बूँद बनूँ तो दुनिया समंदर,
मैं दीप बनूँ तो ये अंधकार का मंजर।
मैं शब्द हूँ, मेरी दुनिया के चक्रव्यूह समान,
अभिमन्यु बन, हर अनुभव में बसती है मेरी पहचान।
©अनुज प्रताप सिंह सूर्यवंशी
पूरनपुर, पीलीभीत (उoप्रo)
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