स्वार्थ के साये में प्रेम
विवाह-मंडप सजा हुआ था, दीपों से उजियारी थी,
पर उसके मन की कोमल कलियाँ आज कहीं मुरझाई थीं।
प्रेमिका से नाता उसका था केवल स्वार्थ की डोरों में,
वचन मधुर थे पर मन उलझा था छल की कठोरों में।
वह आया मुस्कान सजाए, जैसे कुछ भी घटा नहीं,
दिन-रात के वादों पर उसके मन ने अब ठहराव कहीं।
सहेली खड़ी थी पास वहीं, मन में जिज्ञासा गहरी थी,
प्रेम में पगले उस स्वार्थी से शायद कोई लहरी थी।
नज़र मिली तो बात बढ़ी, छिपे हुए संवाद जगे,
एक-दूजे के हित चिंतन में स्वार्थ के प्रतिमान ढले।
प्रेमिका की मधुर स्मृतियाँ जैसे गुम-सी होने लगीं,
सहेली संग उसके मन की चालें अन्य ही होने लगीं।
दोलें सजीं, मृदु शंखनाद में दुल्हन आगे बढ़ती थी,
पर पीछे स्वार्थी प्रेमी की जीवन-लीला चलती थी।
प्रेम जहाँ निर्मल होना था, वहाँ छल-छल मुस्काता था,
सहेली संग नए प्रसंग का मौन करार बन जाता था।
विवाह की वेला में भी जब मन स्वार्थ से भर जाता है,
प्रेम नहीं, केवल मोह का क्षणिक धुँआ रह जाता है।
©अनुज प्रताप सिंह सूर्यवंशी
पूरनपुर पीलीभीत उत्तर प्रदेश



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