भूख

तड़प रहे ना जाने कितने लोग भूख से
चूल्हा रोया चक्की रोई बच्चे हुए कांटा सुख के
मरे हुए पेट की आवाज़ कहाँ कोई सुन पाता है
राजनेता को चाहिए वोट ले गए लोगों को लूट के
सुनो तुम सबको मैं एक सच्चा राग सुनाती हूं
भूखे नंगे बच्चों के आंसू औऱ दर्द दिखलाती हूं
सरकारें एक बार बने फिर ये अपना हाथ छुपाते है
झोपड़ियों में कुछ लोग बस भूखे ही सो जाते है
धनवानों का देश है ये मैं तुमको याद दिलाती हूं
राजनीती के दरबारों को फिर दर्पण दिखलाती हूं
ओ मज़हब के ठेकेदारों अब तो तुम कुछ बोल दो
बच्चों की रोटी की कीमत क्या है अब कुछ मोल दो
सर्दी के इन दिनों में उन बच्चों ने क्या खाया होगा
रातों में चौराहों पर सोने वाला भूखा ही सो गया होगा
भूख बड़ी तड़पाती है ये पकवान वाले कहाँ समझेंगे
भुखमरी के दर्द को ऊँचे मकान वाले कहाँ समझेंगे
भावना के ज्वार को बस अंगार कर रही हूं
साहित्य की भाषा में बस चंद सवाल कर रही हूं
क्या गरीबी की सीमा रेखा तुमने कभी आँकी है
सच कहूं तो भुखमरी हमारे देश की त्रासदी है
आसमान को रजाई समझ कई बच्चे सो जाते है
ना जाने कितने ही बच्चे दूध देख भी ना पाते है
हमने तो केवल सुना है कि लोग भूख से मर जाते है
लिखते जो पुस्तक कविताओं में लोग उतना ही पढ़ पाते है
भूखी किस्मत जब हो बच्चों की तो वो भोजन कहाँ से पाएंगे
भूख है ये बेरहम साहब भूखे कब तक ज़िंदा रह पाएंगे।।
✍️-प्रियंका सिंह
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