मानव हो तुम--
जो बातें करते थे अंबर छूने कि,
वो थोड़ी उचाई से डरते है,
मै सख्त हूं पत्थर सा कहते थे,
क्यों ऐसे बिखरा करते है।
जीवन है तो फिर कैसे,
केवल सुख से काम चलेगा जी,
हर दम थोड़ी ना है शीत यहां,
थोड़ा तो कभी जलेगा जी।
आंधी बहुत है आती पर,
पर्वत सा अड़ना पड़ता है,
इन्सान हो तुम जीने खातिर,
रोज़ ही मरना पड़ता है।
ना फिक्र करो मैं हार गया,
प्रयास दुबारा करना है,
निज धरा पे तुम ने जन्म लिया,
घिस घिस के तुम्हे निखरना है।
राम स्वयं भगवान थे,
फिर भी संघर्ष नहीं छोड़ा,
वनवास पिता ने ज्यों दिया,
उसी वक्त था धन से मुख मोड़ा।
जब इश्वर ने संघर्ष किया,
तो तुम खुद को समझ रहे हो क्या,
एक हवा के झोंके से डर गए,
आंधी से कभी लड़े हो क्या।
ये मानव का वेश जो है,
बड़े सौभाग्य से मिलता है,
कितने ही पुण्य करने पड़ते,
तब कोई मानव रूप में खिलता है।
✍️- आदित्य कुमार
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