मंसूबे आज भी बुलंद रहते है शैतानों के
इंसाफ की फाइलें तो सड रहीं है तहखानों में
भरोसा हम उस वर्दी पर करें तो कैसे करें
जो सुबह की चाय पीते हैं सरपंच के दालानों में
जनप्रतिनिधि की बातें तो महज एक छलावा है
जो डांटते हैं मुंह पर और समझाते हैं कानों में
अख़बारों की लाइने तो विज्ञापन से पटी पड़ी है
हमारी खबरें भी छापी जातीं है तो नजरानो में
सहो और चुप रहो यह बातें समझाते हैं जवानों को
कत्ल तो महेज एक खेल बन चुका है उनके लिए
क्या पता कब पिस्टल तन जाये तुम्हारे कानों पे
ये बातें बुरी ही सही पर इतना भरोसा मत करना संविधानों पे
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✍️--कवि अनूप |
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