बलूत का पेड़
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जंगलों के बीच में,
पहाड़ की ढलान पे,
पेड़ इक,बलूत का,
खड़ा हुआ था शान से,
आसमाँ से खेलता,
कद में वो सरदार था,
था पंछियों का आसरा,
विस्तार में अपार था,
फिर अचानक एक दिन,
आँधियां तबाहकुन,
चलने लगीं थी ज़ोर से,
गति के तेज़ शोर से,
पत्तियां बिखर गयी,
टहनियां उखड़ गयी,
बलूत के उस पेड़ की,
छाल तक उधड़ गयी,
धराशायी हो गये,
सब पेड़ आस पास के,
शूकती हवा ने गाये,
गीत संत्रास के,
थपकड़ों को झेलता,
झूलता और डोलता,
फिर भी था खड़ा हुआ,
पेड़ वो बलूत का,
हवा भी आख़िर थक गयी,
आंधियां भी रुक गयी,
विध्वंस की विडम्बना,
सब्र के आगे झुक गयी,
रुंड मुंड नग्न था,
अंग अंग ज़ख़्म था,
कटा हुआ, छिला हुआ,
बलूत का सब जिस्म था,
तिरछी नज़र से देखते,
हवा ने तब समीप आ,
खड़े हुए बलूत को,
सरसरा कर यूं कहा,
मेरे प्रबल प्रवेग से,
जंगल सब उजड़ गया,
वनस्पति का काफिला,
तिनका बन उखड़ गया,
जिज्ञासा वश हूँ पूछती,
बलूत, मुझको यह बता,
जब सारे बुर्ज ढह गए,
कैसे तू खड़ा रहा,
बलूत ने कुछ मुस्करा,
उसको यह उत्तर दिया,
तेरे प्रबल प्रवाह को,
मैं जानता हूँ, ऐ हवा,
तू चले तो तमाम,
मेरी पत्तियों को झाड़ दे,
तू चाहे तो मेरी,
सारी टहनियां उखाड़ दे,
तेरी कूबत है कि मेरे,
जिस्म को मरोड़ दे,
तेरी ताकतें मेरे,
हरेक अंग को झंझोड़ दे,
पर तू नहीं है जानती,
मेरे इक पुष्ट अंग को,
जिसकी वजह से जीता मैं,
तुझसे हवाई जंग को,
छू नहीं सकती है तू,
कभी भी उसको चाह के,
गहरी धंसी ज़मीन में,
क्या बात उसकी थाह के,
फैला सघन जमीन में,
ये जो जड़ों का सिलसिला,
मेरी मजबूती का आधार है,
ये जड़ों की श्रृंखला,
मैं तो इनके साथ में,
हूँ जन्म से ही जुड़ा हुआ,
थामें रखती हैं सदा,
तभी तो अब तक खड़ा रहा,
बात तुझको इक कहूँ,
सुन जरा पगली हवा,
वो कहीं का न रहा,
जो जड़ों से उखड़ गया,
हो आफ़तें,आपात हो,
सौ संकटों की बात हो,
जो जड़ों से रहता है जुड़ा,
वो तन के रहता है खड़ा।
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