ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

संघर्षरत इजरायल और हम

संघर्षरत इजरायल और हम

आत्मबोध। यह विश्व का एक अद्भुत उदाहरण है, जो पहचान संस्कृति से जुड़ी रहती हैं, वे लोगों को उससे बांधे रखती हैं। अपना स्थान छूट जाने के बाद भी उस संस्कृति से जुड़े लोग राजनैतिक रूप में भी उस स्थान पर अधिपत्य बनाए रखने की इच्छा रखते हैं और सफल भी हो जाते हैं।मूल स्थान से उखड़ जाने के पश्चात कोई सांस्कृतिक समूह या लोग समाप्त नहीं होते, जब तक कि वह अपनी संस्कृति को बनाए रखने में सफल रहते हैं। वे 'एक लोग' के रूप में तभी समाप्त होते हैं जब उनकी संस्कृति नष्ट हो जाती है।

यहूदी ईसा पूर्व 3500 वर्ष पहले अरब के उजाड़ रेगिस्तानों और मेसोपोटामिया (आधुनिक ईरान) से उजड़कर खानाबदोश जीवन को त्याग कर फिलिस्तीन में बस गए थे। जब सभ्यता ने अपना शैशव काल प्रारंभ ही किया था, यह बात सैसिल रोथ की किताब शार्ट हिस्ट्री आफ द ज्यूइश पीपल, ग्लासगो 1948 में लेखक ने एकदम सच कहा है। हजार वर्षों के ईसाई और इस्लामी धार्मिक एवं राजनैतिक उत्पीड़न व देश विहीन होने पर भी यहूदी संस्कृति, सभ्यता व पहचान अक्षुण्ण बनाए रखने के फलस्वरूप ही इजरायल का पुनर्निर्माण सम्भव हो सका। 

800 ईसा पूर्व यहूदियों का फिलिस्तीन में आखिरी राज जूडिया समाप्त हो गया, उन्हें अपना देश फिलिस्तीन छोड़ना पड़ा और उसके पश्चात 1948 में इजरायल की स्थापना तक लगभग 2000 वर्ष के अंतराल में न यहूदियों का दुनिया में कोई राज्य रहा, न अपनी मातृभूमि में ही वह बस सके। वे दुनिया भर में राजनीतिक सत्ताविहीन, देश विहीन शरणार्थियों के लिए घूमते रहे और निकाले जाते रहे।इस बीच वे क्या क्या दुख दर्द यातना नही सहे। फिर भी अपना हिम्मत, शिक्षा के प्रति जागरूकता और मेहनत नही भूले। अपने एक्साइल पीरियड में यहूदी जिस भी देश में गए। वहा उन पर भीषण अत्याचार हुई। फ्रांस में उनको रहने के लिए शहर से बाहर स्थान दिया गया।जिसे चारो तरफ से मिट्टी के दीवाल से घेर दिया गया। फ्रांस में इसे घेटो कहा गया।जिसमे यहूदी घुट घुट कर रहने को मजबूर थे।जिसे नेपोलियन बोनापार्ट ने खत्म कर उन्हे आजाद जिंदगी दी। रूस में यहूदी महिलाओं को इस बात का एक टैग लेकर चलना होता था की ओ वैश्यावृति में शामिल नहीं है। जिसे चर्च का पादरी या उसका समूह देता था। यहूदी महिला की वर्जनिटी टेस्ट करने के बाद। 16वी शताब्दी में इंग्लैंड में अंग्रेज लड़के के साथ स्कूल में एक यहूदी बच्चा जाता था। अंग्रेज बच्चा के गलती करने पर सजा यहूदी बच्चा को मिलता था। इन सब के बावजूद यहूदी अपनी संस्कृति और अपने वतन के प्रति प्रेम को बनाए रहते थे। दुनियां भर में फैले यहूदी साल में एक दिन नदी के किनारे जाते और खूब रोते थे की अगले वर्ष ओ अपने वतन में होंगे। इसके साथ ही दुनिया में फैले यहूदी अपनी कमाई का अंश फलिस्तीन में रहने वाले अपने यहूदी भाइयों को भेजते थे की वे फलिस्तीन ना छोड़े और पवित्र वेदी की रक्षा करें। दुनियां में जहा भी यहूदी गए, वहा उनसे नफरत किया गया। इसका वजह उनका स्थानीय लोगों से ज्यादा मेहनत करना और पढ़ाई करना है। जर्मनी में यहूदियों ने घास और भूसा का व्यापार करके आर्थिक रूप से जर्मनवासियो से ज्यादा मजबूत हो गए। जिसकी वजह से जर्मन उनसे और अधिक नफरत करने लगे। और इसी नफरत से हिटलर पैदा हुआ,जिसका काम सबको याद है।

   अपने एक्साइल पीरियड में बहुत से यहूदी अरब में भी रहते थे। जहां बहुत बाद में हजरत मोहम्मद साहब ने इस्लाम धर्म की बुनियाद रखी। यहूदियों को इस्लाम में लाने के लिए मुहम्मद साहब ने अनेकों प्रयत्न किए।मगर एक भी यहूदी हजरत मोहम्मद साहब की बातों में नही आया। यहूदी महिलाओं की अपने मुंह और शरीर को ढकने की परंपरा, जो आज मुस्लिमों में बुर्का है,को हजरत मोहम्मद साहब ने अपने मजहब का अंग बनाया। फिर भी यहूदी इस्लाम में नही आया। मुंह और शरीर को ढकने की परंपरा यहूदी महिलाओं में पहले नही थी। यह यहूदियों के अपने मूल वतन को छोड़ने के बाद आई।जिसका मकसद अन्य लोगों द्वारा खुद की रक्षा करना था। यह प्रथा अब यहूदियों में नही, मगर इस्लाम में है।यहूदी दुनिया के किसी भी भाग में रहे,अपनी विरासत नही भूले।

और यही साझा इतिहास, साझा संस्कृति, साझा जीवन अनुभव, पूर्वजों को एक मानना या साझा पूर्वज, कई पीढ़ी साथ-साथ झेले दुःख और समान विश्वास, साझा मातृभूमि और साझा चिंतन की प्रक्रिया थी, जिसने यहूदियों की छोटी-छोटी जातियों, उप-जातियों, कबीलों और खानदानों को मथकर 'एक लोग के रूप में' बदल दिया। 'यही साझा जीवन की अनुभूति और ध्येय उद्देश्य की एकता' ने 1948 में फिर 3000 वर्ष बाद उन्हें इजरायल नाम की यहूदी राज्य की स्थापना की ओर खींच लाई और उन्हें एक लोग के रूप में सदियों तक बांधे रखा - चाहे उनके पास राजनीतिक सत्ता और कोई निश्चित भूभाग बसावट के लिए रहा या न रहा हो। इजराइल की भूमि पर उनका मातृभूमि के रूप में दावा भी सही है यद्यपि एक लोग के रूप में ढल जाने के बाद भी वे बहुत ही कम समय उसमें रह पाए थे।

फिलिस्तीनियों के निरंतर दबाव और विजयों ने उन्हें संगठित किया। सैमुअल इजराइल का पहला यहूदी राजा और दूसरा राजा डेविड बना। डेविड ने अपने खोए इलाकों पर पुनः विजित कर खोई प्रतिष्ठा को प्राप्त कर जैरूसलम को राजधानी बनाया। इसके बाद सोलोमन का पुत्र डेविड राजा बना, जिसनें ऐलात की खाड़ी, जो भारत से भी व्यापार का मुख्य मार्ग थी, पर भी अधिकार कर लिया, जो फिलिस्तीनियों के कब्जे में इजरायल का आखिरी प्रदेश था।

1953 ई०पू० सोलोमन ने जैरूसलम में प्रसिद्ध जिओन मंदिर का निर्माण कराया और इस तरह जैरूसलम इजरायल की राजधानी होने के साथ-साथ इजराइल की धार्मिक राजधानी भी बन गया। जो परंपराएं और संस्कार इस मंदिर से जोड़े गए उनका सामाजिक संगठन की दृष्टि से बड़ा महत्व है। प्रत्येक पुरुष यहूदी को पासओवर की दावत या त्यौहार के समय इस मंदिर में उपस्थित होना आवश्यक था। यह जनगणना का तरीका था, सैनिक शक्ति का भी अनुमान लगाना था, सब दिशाओं के यहूदियों का मिलना था पंचायत के रूप में विचार-विमर्श था और सामूहिक देवता की पूजा के रूप में सामूहिक जीवन का प्रतीक भी था।

इजराइल में बसने के बाद इजराइली तथा क्रेट से आए फिलिस्तीनी एक दूसरे में आत्मसात न कर सके और बराबर लड़ते रहे। मुख्य बात यह है कि फिलिस्तीनी धीरे-धीरे अपने मूल सांस्कृतिक पहचान को खो बैठ, उनकी संस्कृति समाप्त हो गई और वे पहले इसाई फिर इस्लाम मजहब ग्रहणकर एक तरह से अरब इस्लामिक जगत के अंग बन गए।

इस तरह वे अपनी उच्च संस्कृति खोकर एक निम्न श्रेणी की संस्कृति को अपना बैठे और उस संस्कृति में भी उन्हें एक निम्न स्थान मिला। मुस्लिम फिलिस्तीनियों ने खुद ही अपनी क्रेट वाली फिलिस्तीनी संस्कृति को मिटाना शुरू कर दिया और खुद भी एक कौम की हैसियत से मिट गए। आज दुनिया में कोई नहीं जानता कि फिलिस्तीनी कभी एक महान संस्कृति थी।

परन्तु यहूदी संस्कृति और यहूदियों का एक लोग के रूप में अन्त नहीं हुआ। उन्होंने अपनी संस्कृति को बराबर बनाए रखा और उस संस्कृति द्वारा दिया गया ज्ञान, विज्ञान और कला बराबर दुनिया में फैलाते रहे। यही उनकी पहचान थी। यहूदी धर्म ने दुनिया को एक दर्शन दिया, नैतिकता के नियम दिए और राज्य व्यवस्था के आधार दिए। इजरायल को सांस्कृतिक रूप से समाप्त कर सदैव के लिए मुस्लिम राज्य बना लेने के उद्देश्य से भारी संख्या में अरबों को वहां बसाया जाने लगा। इसके साथ यहूदियों को कत्ल करना, गुलाम के रूप में बेचना और बलपूर्वक मुसलमान बनाना और यहुदी धार्मिक स्थलों को मस्जिदों में परिवर्तित करना प्रारंभ हो गया। टेंपल माउंट नामक प्रसिद्ध यहूदी धर्मस्थल में नमाज पढ़ना शुरू कर दिया गया। इस तरह यहूदियों के पवित्र शहर जैरूसलम को मुसलमानों ने भी अपना पवित्र शहर घोषित किया। प्रसिद्ध मस्जिदों अल अक्सा एवं डोम आफ द रौक का निर्माण कराया। 

इस समय तक अर्थात ईसा की पहली सदी से ईसा का जन्म स्थल होने के कारण जैरूसलम ईसाइयों का भी पवित्र स्थान बन चुका था। अतः यहूदियों के साथ ईसाइयों को भी मुसलमानों के मजहबी अत्याचार का शिकार होना पड़ा।

इजरायल में जैरूसलम यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों का धार्मिक स्थल है परंतु न ईसाइयों ने इसे ही अपनी मातृभूमि के रूप में माना और न मुसलमानों ने ही उसे मातृभूमि के रूप में स्वीकार किया। पर फिलिस्तीनी मुसलमान फिलिस्तीन के एक छोटे से भाग पर ऐसा दावा कर रहे हैं जिसे आज हम गाजा पट्टी कहते हैं। 

निरंतर युद्धों की समस्या से बचने के लिए ईसाई अपने धार्मिक केंद्र को ही जैरूसलम से उठाकर वैटिकन सिटी रोम ले गए और वे भूल गए कि जैरूसलम और बैथेलम उनके आराध्य देव ईसा का जन्मस्थल है। मार्च 631 ई. में, मजहब (इस्लाम) की स्थापना पर यदि उन्होंने अपना पूजा-स्थल बना लिया होता तो अन्य धर्मस्थलों को तोड़कर अपमानित कर अपना पूजास्थल बनाने की परम्परा न पड़ती। आश्चर्यजनक रूप से मुसलमानों ने भी अपने पवित्रतम स्थलों में मक्का मदीना को प्रथम स्थान दे दिया। 

अल-अक्सा मस्जिद को मक्का मदीना के बाद इस्लाम में तीसरा पवित्र स्थान माना जाता है। 35 एकड़ में फैले इस परिसर को मुस्लिम अल-हरम-अल-शरीफ कहते हैं। यहूदी इसे टेंपल टाउन कहते हैं। वहीं ईसाइयों का मानना है कि यहीं वह स्थान है जहां ईसा मसीह को सूली पर लटकाया गया था। इसके बाद वो यहीं पुनः अवतरित हुए थे। इसी के भीतर ईसा मसीह का मकबरा है। यहूदियों का सबसे पवित्र स्थल डोम ऑफ द रोक भी यहीं स्थित है। ऐसे में इस स्थान को लेकर वर्षों से यहूदियों और फिलिस्तिनियों के मध्य विवाद जारी है।

यहूदी जैरूसलम और इजरायल को छोड़कर न कोई दूसरा तीर्थ स्थल बना सके, न इजराइल को अपनी मातृभूमि के रूप में भूल सके। वे विश्व में जहां भी रहे उस देश के अच्छे नागरिक बन कर रहे। परंतु कभी भी इन 2000 वर्षों में जैरूसलम इजरायल को नहीं भूल सके। 

जैरूसलम की यातनाओं के बारे में कविताएं लिखी जाती रही और जैरूसलम पहुंचने की भावना कभी नहीं मरी। उनका प्रसिद्ध गीत "अगले वर्ष हम जैरूसलम में होंगे" उनकी भावना व निष्ठा के यथार्थ को प्रस्तुत करता है।

वर्तमान में ज्यादातर फिलिस्तीन के लोग वेस्ट बैंक में ही रहते हैं, जहां इजरायल का पूरा कंट्रोल है। वहीं कुछ लोग गाजा पट्टी में रहते हैं, जहां से हमास ने इज़राइल पर बड़ा हमला किया और जैरूसलम में कुछ मस्जिदों ने मुस्लिमों को जिहाद के लिए लड़ने के लिए आवाहन किया जा रहा है। परंतु हाल में इजरायल में हमास के द्वारा किया हमला बहुत क्रूर और मानवता के खिलाफ है।जिसे हम किसी भी रूप में समर्थन नहीं करते है। एक भारतीय होने के नाते मैं इज़रायल के पक्ष में अपना विचार रखता हूं।क्योंकि इजरायल भारत के साथ हर मुश्किल घड़ी में साथ रहा है। भले ही उसे भारत से कोई समर्थन मिले या नहीं। 1971 का युद्ध हो, जब भारत का इजरायल से कोई संबंध नहीं था या कारगिल युद्ध। इज़रायल हमेशा भारत के साथ रहा है। इस नाते हर भारतीय का यह कर्तव्य है की ओ इस समय इजरायल का कम से कम नैतिक साथ दे। क्योंकि भारत भी आतंक की नोक पर ही बैठा एक देश है।आज भारत की भी वही समस्या है,जो इजरायल की है।


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