श्राद्ध
जब तक रहा जहां में, एक पल का मिला नहीं सुकून।
रोजाना ही नया सिलसिला, चढ़ जाता था उसे जुनून।।
परंपरा सारी निभाई, जो भी समाज में थी प्रचलित।
जहां पर रोना चाहिए था वहां भी, उसने गाये थे गीत।।
मौत तो मौत होती है, उसमें बच्चा बुढ़ा या जवान क्या।
लेकिन बुजुर्ग की अर्थी ले जाते हैं, ढोल बजा बजा।।
मेवा और मिठाई बना कर, अतिथि स्वागत होता है।
भले ही किसी का दिल जले, कोई भी नहीं रोता है।।
रोटी तक मिली नहीं जिसे, उसके भी लड्डू बनाते हैं।
बड़े खुश होकर सभी, रिश्तेदारों को खिलाते हैं।।
फिर करते श्राद्ध उसका, भोजन खूब खिलाते हैं।
कपड़े भले नहीं दिये उसे, पर पांचों कपड़े दे जाते हैं।।
गजब की रीत चलाई है, कुछ लोगों के चलते परिवार।
चाहे किसी के दिल पर ये, गुजरती हो नागवार।।
पाखंड कैसा देखो भारत में, भोजन यहां पर खाता है।
वो वर्षों पहले मरे हुए बाप दादा तक पहुंच जाता है।।
राजेन्द्र सिंह श्योराण
गुरुग्राम हरियाणा।



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