स्त्री
स्त्री की देह,
होती है विदेह,
स्वयं उसके लिए।
धरती है वह सिर्फ देना जानती है,
प्रकृति है खुशियाँ बिखेरना जानती है,
आकाश है वह छा जाना जानती है,
मेघ है दग्ध हृदय को भिगोना जानती है,
हवा है सांसों में बहना जानती है, नीर है वह प्यास की भाषा जानती है,
पसीने की बूंद सा माथे पर चमकना जानती है,
चांद है वह रूप यौवन जानती है, सूर्य सा वह ओज भरना जानती है,
है निशा वह विश्रांति देना जानती है,
उषा वही फिर से जगाना जानती है,
वह दिए की बाती सा जल अंधियारा भगाना जानती है,
मौन है वह मौन की भाषा निभाना जानती है,
उफनता सागर है सब कुछ बहाना जानती है,
बीज को वह ही उगाना जानती है,
मृत्यु है सब कुछ मिटाना जानती है।
रश्मि ममगाईं

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