करते रहिए मुलाक़ातें
कहते है कि पुस्तकों , रिश्तों , परिवार , समाज आदि - आदि में मुलाक़ातें करते रहिए जिससे हमको पुनरवालोकन करने का अवसर मिलता रहे हम अवसाद में नहीं जाये तरोताजा होते रहे । इंसान का जीवन हक़ीक़त में एक रंग मंच जैसा ही होता है।जन्म से लेकर मृत्यु तक निभाने पड़ते हैं तरह-तरह के रोल।यह रंग मंच एक बच्चे से शुरू होता है और दादा-नाना बनने के बाद सदा-सदा के लिये समाप्त हो जाता है।एक बच्चे से शुरू हुआ जीवन दादा-नाना बनने तक के सफ़र में जीवन के हर रोल को बख़ूबी निभाने वाला इंसान एक श्रेष्ट कलाकार कहलाता है। आज के समय की यह हक़ीक़त है की जो प्यार और अपनापन आपस में बैठ कर बात करने में या मिलने में था।वो इस टेक्नालजीज़ के युग में महज फ़ॉर्मैलिटी रह गयी। मुझे अपना बचपन याद आता है।रात्रि में खाना खाने के बाद या पहले घर के बाहर चौकी पर जमघट लगाना।अड़ोस पड़ौस परिवार से आपस की बात शेयर करना।उनसे कुछ सिखने को मिलता था साथ में व्यक्तिगत सम्पर्क के कारण आपसी प्रेम और अपनापन भी बढ़ता था।
वर्तमान कीं सोच का मुख्य बिंदु यही दर्शाता है कि इंसान ने इस वर्तमान में टेक्नोलोजी युग में टेक्नोलोजी में तो ख़ूब प्रगति की है ओर आर्थिक उन्नति की है या नहीं कीं है यह मनुष्य के कर्म पर निर्भर है परन्तु आपसी संवादहीनता के कारण आत्मीयता और अपनापन से बहुत दूर मनुष्य चला गया है।जिसका ख़ामियाज़ा भी परिवारों में देखने को मिलता है । एकाकीचिन्तन, एकाकी सोच, एकाकी जीवन , परिवार में साथ में रहते हुए भी आपस में बच्चों में फ़र्क़ ,अप्रमाणिक क्रत्यो में व्यवस्था आदि । इसके परिणामस्वरूप जल्दी ही ये सब हमें भूल जाएँगे और फिर इन रिश्तों को हम बड़ी मुश्किल से पुनर्जीवित कर पाएँग। अतः सबसे मुलाक़ातें करते रहिए रिश्तों से, पुस्तकों से आदि से उन्हें मुरझाने मत दीजिए।उन सबको भी तरोताजा रखिए खुद भी तरोताजा रहिए।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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