ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

कौन यहॉं किसके लिए जीता है साहब?-प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

शीर्षक:-कौन यहॉं किसके लिए जीता है साहब?
रोज नहीं पर कभी-कभार,
प्रशंसा रूपी अमृत की जरूरत पड़ती है,
अमृत ना सही नीर से भी शक्ति जरूर बढ़ती है ।1।

जीवन भर किसी का साथ किसे मिला है?
अपने भाव की समझ खुद ही उकेरनी पड़ती है ।2।

कौन यहाँ किसके लिए जीता है साहब? 
जीने के लिए भी जिन्दगी समझनी पडती है ।3।

घन्टों की भी गिनती चौबीस है यारों, 
जीवन को तो अनगिन विषमताओं से लड़नी पड़ती है।4। 

सन्धि समास संज्ञा... व्याकरण की समस्याएं! 
रचना छंदमुक्त तो कभी छंदबध्ध होकर लिखनी पड़ती है।5।

आज ऊबकर एक तरफ हो जाने को दिल चाहता है, 
हर रोज ही रोजमर्रा के लिए रोजी रोटी ढूँढ़नी पड़ती है।6।

चलो रे मन आज घूम आते हैं कहीं सफर से, 
क्या 'प्रतिभा' तुम भी; मुझे तो हर बेला देशाटन करनी पड़ती है ।7।

प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई

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