ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

समतल कहीं नहीं-प्रतिभा पाण्डेय "प्रति" चेन्नई

शीर्षक:- समतल कहीं नहीं।
खेल मुकद्दर का था खिलाड़ी हम चुने गये, 
झोली खाली रही फिसड्डियों में गिने गये ।

टूटी नाव का सहारा ,बस इतना मिला मुझको,
हम रोते हुए समन्दर की,सीप में चुने गये ।

छूकर गुजर गये थे, पास से खुशनुमा हालात ,
बुत बनके हम बदतर, हालात के होते गये ।

रास्ते बहुत देखे हैं समय-समयानुसार ,
ठोकरें नसीब में खाते हुए, अब थककर चूर हो गये ।

असर कभी दिखा नहीं, पर सबने  यही कहा,
दुआ मांगते हैं तेरे लिए, 
लगता है दुआओ को भी गुरूर हो गया,
तभी तो मंजिल से हमेशा दूर होते गये ।

किसी का नहीं तो, होकर किसी का भी देखलो यारों,
तरसना तड़पना..., प्रेम में,
 तन्हाई की सीमा पार हो गये ।

प्रेम से; प्रेम को; प्रेम की निगाह से देख क्या लिया, 
जीवन के सारे शौक गवां, निष्प्राय बैठक से हो गये ।

जिस नाव पर बैठकर, हम जी रहे है जिन्दगी, 
समतल कहीं नहीं, सब उबड-खाबड हो गये ।

फलक के फतह की कोशिश अनवरत करती,
यौवन प्रेम को दरकिनार कर मेहनत के हो गये । 

(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई

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