शीर्षक:-विवश हूँ फिर भी।
सबकी तमन्नाओं का तम दूर करती हूँ ,
हाँ मैं रोज अपनी कलम की चश्मेबद्दूर करती हूँ।
ना जाने कौन सा वक्त खफा हो जाए,
सिलसिलेवार सिलसिला दफा हो जाए,
गीता की कसम हर वक्त खाया करती हूँ,
आहत हो फिर चीखकर,
अपनी ही कसम चकनाचूर करती हूँ।
व्यक्त व्यक्तित्व का व्यक्ति महान,
जब व्यक्त करे तो लगे झूठ समान,
सच छिपाकर झूठ जाने कितने दिन रहेगा,
जख्म पुराने, जलन कितने दिन सहेगा,
झूठी शान पर सच से तारीफदारी कर रही हूँ,
विवश हूँ फिर भी,दम्भ को कोहिनूर कह रही हूँ।
अच्छा होकर भी अच्छा सिमट कर रह गया,
पनपकर आडम्बर पूरा का पूरा फैल गया,
हम नेकी करने में खुद को भूल गए,
जूठन मेरा खाए, मेरा अध्याय बदलने पर तुल गए
सब दरकिनार कर प्रकाशित खुद को कर रही हूँ।
जिद्दी मुश्किलों से बेपनाह मुहब्बत कर रही हूँ ।
(स्वरचित, मौलिक)
प्रतिभा पाण्डेय "प्रति"
चेन्नई
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