बखिया उधड़ गई
हृदय की पीड़ा पर लगा शब्दों का मरहम....
"बखिया उधड़ ही गई" अहं की सुई से
वहम के टाँके कहाँ हो पाए मजबूत
रिश्तों की चादर में हुई बखिया उधड़ ही गई।
व्यंग्य की धारदार कैंची से होता गया तार-तार
मृदु व्यवहार का मिला जो ताना-बाना,
आखिरकार उसकी ये बखिया उधड़ ही गई।
कर्णभेदी बहस की कँटीली झाड़ियों में,
उलझ नहीं पाया सुलझ गया सौम्यता का,
वस्त्र और फिर ये बखिया उधड़ ही गई।
संस्कार, सभ्यता और सहनशीलता को,
भेदते तथा अपने ही पैरों तले रौंदते,
बहस व कटाक्षों के नुकीले अस्त्र-यत्र-तत्र,
सर्वत्र बच न पाई और बखिया उधड़ ही गई।
मुकेश चंचल,
गड़वार,बलिया-यूपी
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