भागता हूं अपनी खुद की ही परछाई से
ज़िंदगी के इस सफर में, हर कदम पर चलना है,
कभी खुद से ही मिलना है, कभी खुद को ही समझना है।
हर खुशी में, हर ग़म में, साथ है मेरी परछाई,
खुद की पहचान में, खुद से ही हो गई जंग में।
जब भी टूटे हैं ख्वाब मेरे, वो दीवारों पर खड़े हैं,
खुद को ही ढूंढता हूं मैं, परछाई के साये में।
कभी मुस्कान का चेहरा, कभी आंसुओं की कहानी,
मैं ही हूँ अपना सिपाही, अपनी ही ज़िंदगी का राही।
कई बार दिल ने कहा, छोड़ दे ये जद्दोजहद,
पर जब उठी अपनी आवाज़, खुद से किया साक्षात्कार।
मैंने समझा कि थकावट नहीं, ये तो है मेरे भीतर का साहस,
हर मुश्किल से लड़ने वाला, हूं मैं खुद का सबसे बड़ा भक्त।
अपनी परछाई में छिपे हुए, जो मेरे अनकहे जज़्बात,
उनकी आवाज़ सुनता हूं मैं, अपनी ही पहचान की बातें।
कभी हिम्मत से, कभी कमजोरी से, खुद को समझा लेता हूं,
ज़िंदगी की इस लम्बी यात्रा में, खुद से खुद को निहारता हूं।
भगत हूं अपनी खुद की ही परछाई से,
हर घड़ी में, हर लम्हे में, खुद को सहेजता हूं।
क्योंकि जब तक रहेंगे हम, अपने साथ,
ज़िंदगी की हर मुश्किल को, हम करेंगे पार।
अनुज प्रताप सिंह सूर्यवंशी
पीलीभीत, उप्र
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