शैदा

….”शैदा”....



तेरी मासूम नादानियों का दिल शैदाई है, 
ये कहाँ समझता है तू मेरी नहीं पराई है, 

तेरी आँखें ही इस कदर बोलती रहती हैं, 
चाहे तेरी ज़ुबाँ पे रहती ख़ामोशी छाई है, 

कब्रिस्तान सा मंज़र है दिल के जहान में,
जबसे तुने अपनी नज़र से मुझे गिराई है,

बेवजह ही बेवफ़ा का लक़ब मिला मुझे , 
वरना हमने तो हरिक से वफ़ा निभाई है,

कौन कहता खुद को आबाद कर रहे हम, 
मैंने तो अपने दिल में खुद आग लगाई है, 

तन्हाईयों का आलम अब ना पूछो आश, 
साथ छोड़ती दिख रही अपनी परछाईं है! 

आश हम्द, पटना बिहार

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