मोबाइल, टीवी पर बढ़ती अश्लीलता
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भारत में लोग "सादा जीवन उच्च विचार" में विश्वास रखते है। यहां की संस्कृति विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में से एक हैं। भारतीय संस्कृति में नारी को उचित सम्मान दिया गया है। तभी तो हमारे शास्त्रों में "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः" का उल्लेख मिलता है। लेकिन देश जब गुलाम हुआ तो पहले मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने देश की संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का काम किया। रही-सही कसर अब मोबाइल और टीवी ने पूरी कर दी है। जब से हमारे घरों में मोबाइल और टीवी ने प्रवेश किया है, तब से हमारी संस्कृति के बट्टा लगना भी शुरू हो गया है। ऐसा ही आज के युवावर्ग का पहनावा हो गया है। आज की युवापीढ़ी के 'शरीर-दिखाऊ फ़ैशन' को देखते हुए हम कह सकते हैं कि 'फैशन' सबके सिर पर चढ़ कर बोल रहा है।
पहले पुरुष हो या स्त्री अपने शरीर पर ऐसे वस्त्र धारण करते थे जिसमें शालीनता की झलक देखने को मिलती थी। औरतें नख से लेकर चोटी तक वस्त्रों से ढ़की हुई रहती थी, हमारे राजस्थान में तो महिलाओं द्वारा मुंह पर घूंघट रखने का भी रिवाज था। लेकिन आज महिलाओं के शरीर पर धारण करने वाले वस्त्र इतने छोटे होते जा रहे हैं कि ऐसा लगता है मानों महिलाओं में पूरा बदन दिखाने की कोई हौड़ सी मची हुई है। लोग फैशन में इतने अंधे होते जा रहे हैं कि हर तरफ अश्लीलता का नंगा नाच देखने को मिल रहा है। आज टीवी पर आने वाले विज्ञापनों व फिल्मों में नारी को इस तरह से पेश किया जाता है जैसे नारी कोई भोग की वस्तु हो। फूहड़ता इतनी ज्यादा हावी होने लगी है कि भारतीय मर्यादाएं अब तार-तार होती नजर आने लगी है।
पहले पूरा परिवार एकसाथ बैठकर फिल्मों का आनन्द लेता था, लेकिन अब बढ़ती अश्लीलता की वजह से शर्म महसूस होती है। विडम्बना है कि आज की युवापीढ़ी देश के महान लोगों के जीवन चरित्र का अनुसरण करने की बजाय सिनेमा के हीरो-हीरोइन को देखकर नकल करने में लगी हुई है। रही-सही कसर इन्टरनेट ने पूरी कर दी है। आज हर समय लोग अपनी नजरें मोबाइल में ही गड़ाए हुए रहते हैं। बहुत से युवा तो मोबाइल पर अश्लील साइटें देखने व सर्फिंग करने में ही रात-दिन लगे रहते हैं। सरकार को ऐसी अश्लील साइटों पर तुरन्त रोक लगाने की आवश्यकता है। हर चीज के दो पहलू होते हैं, नेगेटिव व पॉजिटिव। बदकिस्मत से लोग नेगेटिव को ज्यादा जल्दी ग्रहण करते हैं। यही वजह है कि मोबाइल और टीवी ने हमारे समाज का भला करने की बजाय सामाजिक वातावरण को दूषित करने व मर्यादाओं को भंग करने का काम कर रहा है, जिससे हमें सबक लेने की आवश्यकता है।
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लेखक- तुलसीराम 'राजस्थानी'

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