ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

आलौकिक प्रेम-अनुज प्रताप सिंह सूर्यवंशी



आलौकिक प्रेम

तुम सागर, मैं नदी की धारा,  
तुम अंबर, मैं चांद सितारा।  
तुममें बसा है आलोकिक प्रकाश,  
मैं तो केवल तुम्हारा ही आभास।  

तुम हो वो सुर, जो सृष्टि में गूंजे,  
मैं मौन, तुम्हारी प्रतिध्वनि संजोए।  
तुम हो वह अनंत व्योम में बसेरा,  
मैं धरा, तुम्हारी छांव का घेरा।  

तुम सूर्य की पहली किरण बनकर आए,  
मैं अंधकार, जो तुमसे रौशन हो जाए।  
तुम्हारा प्रेम है निर्मल, अमृत समान,  
मैं उसमें बहती ज्यों नीरव गंगा की तान।  

तुम हो पुष्प, मैं उसकी सुरभि बनकर,  
तुम्हारे रंगों में खोकर, मैं निखरूं हरपल।  
तुम हो आत्मा, मैं हूँ तन तेरा,  
तुम बिन ये जीवन, सूना और अंधेरा।  

प्रेम तुम्हारा है दिव्य, निराकार,  
मैं उसकी साधना में हूं समर्पित, निराधार।  
तुम हो परमानंद, मैं उसकी छवि,  
तुमसे मिलकर, प्रेम हो जाता अभिव्यक्ति की लहरें सभी।  

अलंकारों में सजी है ये प्रेम की माला,  
अनुभूति में व्याप्त पीकर विष का प्याला,
तुम हो स्वर, मैं हूँ साज,  
आलौकिक प्रेम यही है राज।  

अनुज प्रताप सिंह सूर्यवंशी
पूरनपुर पीलीभीत (उoप्रo)

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