अनुभूति के स्वर
जे केहू पूछत नियरा के हमसे, बबुआ जिनगी में तू का देखल,
त हमओकरा जतला देतीं, स्वारथ क भरल एक मेला देखलीं।
मतलब क हम मतलब क तूँ, मतलब क सगरों इहवाँ उहवाँ,
मतलब के बिना केहुना पइलीं, मतलब सेभरल दुनिया पइलीं।
गोरहर देखलीं,करिया देखलीं, पीयर नरखा बहुरूपिया देखलीं,
गटई में लटकत झलकत बबुआ, बहुरंगी कंठी माला पइलीं।
काका काकी,भौजी देवर, भाई भतीजा सब रिश्ता में गइलीं,
रिश्ता क बंधन नाहीं पइलीं, निरखतपरखत पइसा के पइलीं।
जाके"अकिंचन"हर कोना ढुँढ़लीं, बकि प्रेमभाव कतहूँ ना पइलीं,
दिलकेभीतर दिलवर नापइलीं, स्वारथ क फूल खिलल देखलीं।
दिल देखलीं संत विरक्तन , प्रभु भक्तन के हियमें जा झंकलीं,
जे जगती क दुख सगरो पियलस, नीलकंठ जइसन पइलीं।
स्नेह भरल दिय बतिया देखलीं, परमारथ देह जरावत पइलीं,
घरफूँक चलल जे कबिरा जइसन, सगरो जग के तारत देखलीं।
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✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन" गोरखपुर |
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