वैदिक विचार व कर्म
🚩वै. वि. व कर्म.. ३
है यज्ञकर्म कराता आत्मशुद्धि धैर्य शुचिता बलबुद्धि विशुद्ध ।
हवि फैलाता पावनता सर्वत्र,मंत्र कराता मन वाणी कर्म शुद्ध।।
यज्ञ कर्म ,श्रत् कर्म धर्म है, पंच यज्ञ को निशिदिन करना।
ब्रह्म, देव ,भूत ,पितृ और अतिथि यज्ञ कर तृप्त है करना।।
ब्रह्मयज्ञ तो ईश यजन,वेदपाठ है,देवयज्ञ हवि देकर यज्ञकाकरना।भूतयज्ञ,वलिवैश्य देवकर्म है,श्वानधेनुकृमिकाग को तृप्तहैकरना।।
पितृयज्ञ,श्रद्धा से अर्पणतर्पण है,जीवित पितरों की सेवा करना।
अतिथि यज्ञ अभ्यागत की सेवा है, मानसहित संतृप्त है करना।।
ब्रह्म,देव,भूत,पितृऔ"अतिथियज्ञ,पंचयज्ञ हर आर्य को करणीय।
परिष्कृत जनजीवन को करते है सोलहसंस्कार सर्वअनुकरणीय।
गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन है जन्मकाल से पहले हैं करते।
जातकर्म नामकरन निष्क्रमण अन्नप्राशन चूड़ाकर्म कर्णभेद को बचपन में करते।।
उपनयनकर्म,वेदारम्भ,चरण हैं,शिक्षाहित,गुरूकुल को प्रस्थान।
समावर्तन है शिक्षित होकर आना,परिवार जनों में लेना स्थान।।
क्रम से वर्णित बारह संस्कार,हैं ब्रह्मचर्य आश्रम के कर्णधार ।
धर्म,अर्थ,काम का पालन,विवाह कर्म कराता है कर्म अपार।।
गृहस्थाश्रम का पालन अनूप, वान्यप्रस्थी को है बनना अवधूत। संन्यासी तो होता जगका न्यासी,अन्त्येष्टि कराता मोक्ष भवभूत।।
🚩वै.वि.व कर्म-4
धर्म के लक्षण दस बतलाते धृति, क्षमा, दम,अस्तेय, शौच।
इन्द्रियनिग्रह,धी,विद्या,सत्य,अक्रोध का पालन सब निःसंकोच।।
धर्म कराता श्रेयस सिद्धिःव धर्म मार्ग से है लोक में उद्भव।
"जहाँ धर्म है वहीं विजय है", धर्मशील से मोक्ष है सम्भव।।
जीवन शैली है,धर्म का पालन,धर्म नहीं है मत व मतान्तर।
आचरणीय है मानव हित में इसे बसा लें, उर- अभ्यन्तर।।
निष्कामकर्म कर मोक्ष पद पाना,काम्यकर्म कर प्रारब्ध बनाना।
अहेतुकर्म है,संध्यावन्दन करना,हेतुककर्म सोलहसंस्कार रचाना।।
विहितकर्म,नित्यकर्म का करना,प्रतिषिद्धकर्म जो त्याज्य नकरना।
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष अनुपालन है, धर्म कर्म से भवसागर तरना।।
शर्मा, वर्मा, गुप्त, दास वर्ण हैं, ये कर्म परक, शुचि और कुलीन।
जन्मना जातिसिद्धांत,अवैदिक है,वैद्वेषिक,जर्जरितऔर मलीन।।
एक विधाता के हैं सब सम संतान,धमनी में है सबके रक्त समान।
छूत अछूत का भेद रुचकर,क्यों करते हो तुम इनका अपमान।।
वशिष्ठ, व्यास, विदुर,पाराशर, वाल्मीकि वंशज हैं नहीं अकर्मा।
'प्रज्ञा को नमस्कार' कहो मत,हैं विश्वकर्मा के सब पुत्र सुकर्मा।।
एक जाति है सब मनुजों का, हैं मनु के पुत्र सभी मनु-वंशी।
जो संस्कार तज शूद्र हैं बनते, आर्य बन्धु हैं ये सभी अनुवंशी।।
पंथ बताते हैं आराध्य को पाना,है धर्म स्वयं ही विहित लक्ष्य।
अनुवर्तन है,जिसका ईश विधान, है धर्मआचरण कर्म सुदक्ष्य।।
क्रमशः -5
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