ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

महर्षि दयानन्द-9-चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

🚩महर्षि दयानन्द-9

सन् सत्तावन के महासमर के, 
महामंत्र का था, वह उद्गाता ।
वो मानवता का उन्नायक औ'
भूतल का था भाग्य विधाता।।

था युग साधक,वह युग प्रवर्तक, 
औ' महाप्राण व महा तेजस्वी।
वो राष्ट्र पितामह भारत का था, 
 वाणी जिसकी महा ओजस्वी।।

ज्योति जलाया महा क्रांति का, 
वो अविकल कभी ना बुझने पाये।
सोच के अपने हिय में ऋषिवर, 
मुम्बई क्षेत्र में चल कर के आये।।

सन् पचहत्तर के अप्रिल दस को,
आर्य समाज की नींव थी डाली। 
आर्य बनें सब,अरु धर्मजयी हों,
चिंतित रहता हर पल वह माली।।

समजायते यह समज को कहते, 
सभी समान ये मनु पुत्र हैं, मनवः। 
कर्म पतित कर, शूद्र हैं बनतें, 
जन्मना श्रेष्ठ तो सभी हैं, तनवः।।

आर्य जन अनुसरण हैं करते,
 "ऋतस्य पंथा"श्लाघनीय वही है। 
गर्हा करते जिस पतित मार्ग का, 
उस पथ पर चलना शूद्रत्व यही है।

जीवनदाता ,ऋषि दयानन्द ने, 
हिन्दूजन को कहा,करके उद्बोधित।
हीन नहीं तुम आदित्य श्रेष्ठ हो, 
"आर्य"नाम देकर किया सम्बोथित ।।

वेद- मंत्र उच्चारित होवे प्रतिपल,
हर आर्य जनों के अधर अधर में।
"ओउम्-पताका" फिर से फहरे,
भारत भू के हर डगर- नगर में।।

पनपे फैले यह,व प्रश्रय भी देते, 
आर्य भाषा हिन्दी को थे कहते। 
प्रिय सभी थे देशज भाषा पर, 
"देव-नागरी"को शुचि लिपि कहते।।

सत्य-सनातन धर्म है वैदिक, 
कह,शिक्षा हित गुरूकुल बनवाये।
पर हो इसका उत्थान चतुर्दिक,
एग्लो वैदिक विद्यालय खुलवाये।।

 क्रमशः10
✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

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