🚩महर्षि दयानन्द-10
सुकन्यायें होवें वेद-प्रवीना,
शारदा और विदुषी कहलायें।
नारी शिक्षा के परम थे पोषक,
आर्य कन्या विद्यालय खुलवाये।।
अधः पतन की ओर अग्रसर,
अशिक्षा से सब ग्रस्त रही हैं ।
रूढी, परम्परा के नामों पर,
नारी जाति सब संत्रस्त रही हैं।।
अनमेल विवाहों का अभिशाप,
कन्यायें भरतीं निशि दिन आह।
परिपक्वा हो वे करें विवाह,
वे वरें उसी को जिसकी चाह ।।
कन्या तो कोई बोझ नहीं है,
जैसे तैसे हो, कर दो गृह पार।
बिना सोच के कर्म को करना,
जा पड़ना हो भीषण मंझधार।।
प्रतिकूल विवाहों का प्रतिफल है,
विधवा होना या होना परित्याग।
मात-पिता पुनि- पुनि यह सोचें,
कन्या प्रेम का कैसा ये प्रतिराग।।
परित्यक्ता हों या होवें विधवा,
गुणवत्ता पर कर पुनि पुनिःविचार।
दोष नहीं है कन्या ग्रहण में,
ऋषि कहते यह कन्या का है उद्धार।।
ऋषि के जीवन की है ये घटना,
जीव प्रेम पर क्या कुछ है कहना !
प्रेम निष्ठ यदि तो जग है अपना,
दर्शन में तो,यह सब जग है सपना।।
सार्थवाह जाते जिस पथ पर,
स्वामी जी थे अग्रसर उसी पर ।
पथ में मिला एक गाड़ीवान,
हाल-बेहाल था वो,थमा वहीं पर।।
माल भरा था ,गाड़ी के अन्दर,
जो फंसा था जा गह्वर के अन्दर।
दुष्ट घमण्डी था वह गाड़ीवान,
खुद को समझे था धरा-पुरन्दर।।
गाड़ी पर बैठा, था यम का भ्राता,
हूल मार कर बैलों को तड़पाता ।
हर पल में वो आवेश में आकर,
रह रह कर के कोड़े बरसाता ।।
क्रमशः11
✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

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