क्या ही फर्क पड़ता है कोई साथ हो न हो।
अपनों का ही बर्ताव हो जब गैरों जैसा,
क्या ही फर्क पड़ता है कोई अपना हो न हो।
हर दर्द, तकलीफ में जब पोछे हैं आंसू खुद से,
 गिर कर भी खुद उठेंगे कोई सहारा हो न हो।
ठोकरें भी खाईं है खूब, चलना सीखा है जब से,
मुस्कुराते हैं फिर भी कोई खुशी हो न हो।
क्यों सिखाई गई इंसानियत जब सब कुछ है यहां पैसा,
ऊंचा है सर बुराई का अच्छाईयां अब हो न हो।
रूठा है आज मन संसार के न्यायाधीश से,
आज हमारे आंसुओं का हिसाब करो, सह रहे अन्याय कब से,
अब न्याय करो क्यों मौन हो?
~सखी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
 
        
     
         
         
         
         
         
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