ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

जमीनें खिसक रहीं, लोकतंत्र के तानाशाहों की -महेंद्र कुमार

जमीनें खिसक रहीं, लोकतंत्र के तानाशाहों की 
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ऊर्जस्वित हुए कदम अब,
हौसली उड़ान भरने को।
दृढ़ संकल्प परम प्रण पद,
राष्ट्र धरा सेवा करने को ।
अहंकार चकनाचूर हुआ,
सजगता धार निगाहों की ।
जमीनें खिसक रहीं, लोकतंत्र के तानाशाहों की ।।

विकास प्रगति छद्म रूप,
जनमानस यथार्थ ज्ञान ।
भ्रष्टाचार अनैतिकता खेल,
अर्थ कारण भावार्थ पहचान ।
सरगर्मियां नित्य अभिवृद्धित,
परिवर्तन श्रृंगारित राहों की ।
जमीनें खिसक रहीं, लोकतंत्र के तानाशाहों की ।।

मतदाता जागरूक शिक्षित,
उरस्थ भारत मां दिव्य चित्र ।
चिंतन मनन विकल्प संधान,
नेतृत्व पारदर्शी आदर्श चरित्र ।
युवा जोश होश अठखेलियां ,
उज्ज्वल भविष्य पनाहों की ।
जमीनें खिसक रहीं, लोकतंत्र के तानाशाहों की ।।

नीति रीति अधिकार कर्तव्य,
अनुपम राष्ट्र निर्माण सेतु ।
शत प्रतिशत मतदान काज,
रामराज्य सम प्रजातंत्र हेतु ।
वंदन अभिनंदन योग्य प्रतिनिधि,
शामत रावण रूपी आकाओं की ।
जमीनें खिसक रहीं ,लोकतंत्र के तानाशाहों की ।।

महेन्द्र कुमार
(स्वरचित मौलिक रचना)

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