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मैं कितना बदल चुकी हूँ।
जिंदगी के रंग,
दिख न पाए,
जो ख्वाब थे, वह
आंखों में ही मुरझाए,
जिंदगी की हकीकत के साथ,
चल चुकी हूँ,
मैं कितना बदल चुकी हूँ।
लोगो ने खूब खेल दिखाए,अपनो ने,खूब षड्यंत्र रचाये,मेरे आंसुओ से,शायद ही मतलब किसी को,रिश्तों की हकीकत,समझ चुकी हूँ।मैं कितना बदल चुकी हूँ।
उम्र से अधिक,
तजुर्बा हो गया है,
कम वक्त में ही,
अधिक वक्त बीत चुका है,
खुद को मैं समझा चुकी हूँ।
मैं कितना बदल चुकी हूँ।
हर कोई,परीक्षा लिया करता है,अपने अनुसार,काँपी,जांचा करता है,अब मुझे,परिणाम की परवाह नही,हर प्रश्न का उत्तर,मैं, कंचन, बन चुकी हूँ।मैं कितना बदल चुकी हूँ।
✍
कंचन मिश्रा