ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

महर्षि दयानन्द-8-चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

🚩महर्षि दयानन्द-8

विकृतियाँ सारी धर्म नाम पर, 
          क्षेपित प्रदूषण फैल रहा था। 
राष्ट्रीय अस्मिता मर्दित होकर, 
         अपराधकर्म चहुँ पनप रहा था।। 
आस्था स्थल को ध्वंसित करते, 
          सुधार नाम सब संहारित करते। 
आतंकित कर निजमत का रोपण,
          अभिशापित इतिहास थे रचते।। 
मंदिर व प्रतिमा सब टूट रहे थे, 
          धन-सम्पदा विदेशी लूट रहे थे। 
स्वपोषित, पूर्वाग्रहमती पुजारी, 
          कीर्तन संकीर्तन संलिप्त रहे थे।। 
भगवत-प्रतिमा पाषाण बने थे, 
          जन मानस सब विलख रहे थे। 
अवतरित होंगे प्रभु रक्षक आयेंगे, 
           धर्म भीरू बनके निरख रहे थे।। 
साकार रूप में राम-कृष्ण तब,
           राणा और शिवाजी सम बन कर। 
प्रतिरोध किये पौरूष कृपाण से, 
           धर्म-ध्वजा केशरिया फहराकर।। 
गुण अवगुण का करके विवेचन, 
          प्रतिमा पूजन का थे करते खंडन। 
चौसठकला का करके अनुसिंचन, 
         ऋषि शिल्पकला का करते मंडन।। 
उन्नीस सौ तीस था विक्रम सम्वत्, 
         प्रणीत किये"प्रतिमा पूजन विचार"।
चिन्तन मन्थन हो जन मानस में, 
         भ्रांति-निवारण से फैले सुविचार ।। 
प्रतिमा तो है ये प्रतिअभिरूपण,
         अप्रतिम इसमें सब भाव विरूपण।
ऋभुओं का यह अमर ज्ञान है, 
          कलाकार का शिल्पकला निरूपण।। 
ये रथी-सुशिल्पी ब्रह्म रूप हैं, 
          सभ्यता संस्कृति के पोषक व स्रष्टा। 
वर्द्धन करते ये देश राष्ट्र का,
           वर्द्धकि हैं ये, श्रुति- निःसृत त्वष्टा।। 
जन मानस में फूँकी ज्वाला, 
           अंगीकार नहीं है ये राज्य विदेशी। 
शासन कितना भी उत्तम हो, 
         शुचिकर है, अपना राज्य स्वदेशी।।

✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

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