ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

महर्षि दयानन्द-7-चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

🚩महर्षि दयानन्द-7

विजय पताका वेद ज्ञान का, 
        लेकर अपने बाहू भुज द्वै में।
अलख जगाने निकल पड़ा वो,
        आसेतु हिमालय हर दिग् में।। 
हरिद्वार के स्टेशन पर आकर, 
          ऋषि बैठे पद्मासन लगाकर।
रुकी ट्रेन एक वहीं पे आकर,
          गौरांगी के परिवार को लाकर।।
डिब्बे में था बैठा एक अंग्रेज, 
          विलायती उसका सारा परिवेश। 
नग्न कौपीनी उस साधू को देख, 
          देश के प्रभु को आया आवेश।। 
परिसेवक से भेजा वह संदेश, 
         कह,साधू होवे वस्त्रों से लवलेश। 
यदि नहीं मानता है अनुदेश, 
          तो तज दे वो वह स्थान विशेष।।
चाकर था वह, कुछ चकराया, 
          करूँ मैं क्या? अब वह घबराया। 
ऋषि के पास वो चलकर आया, 
          संदेश कहा पुनि, जो था लाया।। 
कहो वहाँ मालिक से तूं जाकर, 
         यह साधू तो है बड़ा निरंकुश। 
कहता आदम के देश से आया, 
          है नहीं जहाँ वस्त्रों का अंकुश।। 
विडलाक्षी सुन ये हुआ अचंभित, 
          इंजिल को  क्या करे तिरस्कृत?
इंगित था यह, वो हुआ चमत्कृत, 
          धन्य धन्य कह उठा वो विस्मित।। 
खण्डन मण्डन, शास्त्रार्थ को करने, 
           कुम्भपर्व पर हरिद्वार में आकर। 
प्रवचन करते रमे यहाँ पर, 
          पाखण्ड खंडिनी शिविर लगाकर।। 
फिर काशी में ध्वजा गाड़कर, 
          शास्त्रार्थ प्रबल, आयोजित कर। 
भारत विजय मिस हुए अग्रसर, 
           समग्र विद्वानों को पराभूत कर।। 
संवत् उन्नीस सौ छब्बीस विक्रमी, 
         "काशी शास्त्रार्थ"को किया विमोचित। 
प्रतिकूल आचरण धर्म का नहो, 
         अनुकूल आचरण करून यथोचित।।

✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

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