🚩स्वामी दयानन्द-5
हुआ प्रकम्पित पुत्र देख,
थे कुपित पिता भी हुए शांत।
"बहकावे में मैं था आया",
आश्वस्त किया करके प्रशांत।।
नये वस्त्र फिर से पहनाकर,
औ'यज्ञोपवीत धारण करवाकर।
पिता अभी निर्द्वन्द नहीं थे,
निशि दिन का पहरा रखवाकर।।
सुख-निद्रा का किया छलावा,
थे ,पहरेदार भी हुए निःशंक ।
स्थिर चित्त नहीं था,बालक,
मात्र दिखावा था निशि अंक।।
रहा सोचता निस्पृह निरन्तर,
कल्याण नहीं था गृह रहकर।
तीसरी रात का आया अवसर,
हुआ पलायित वह छिपकर।।
है आदि कहाँ,अवसान कहाँ,
है स्रष्टा का अनुधाम कहाँ ?
"चैतण्य ब्रह्मचारी" साधक ,
था ढूँढ़ रहा अखिलेश कहाँ।।
सच्चा ज्ञान कहाँ है, क्या है?
जबतक था वो समझ न पाया।
आसेतु हिमालय रहा भटकता,
अपने तन को था खूब तपाया।।
मन्तव्य रहा जो ब्रह्मज्ञान का,
परिजन का भी त्याग किया।
किंचित सोच नहीं की घर की,
सुख-समृद्धि ,परित्याग किया।।
नर्मदा नदी के पावन तट पर,
'पूर्णानन्द' सा सन्यासी पाकर।
दीक्षित हो सन्यास लिया तब,
"दयानन्द" निज नाम धरा कर।।
योगानन्द स्वामी योगाभ्यासी,
से योग रीति सीखा अभिलाषी।
कृष्ण शास्त्री छिन्नौर शहर के,
से सीखा व्याकरण बन अभ्यासी।।
ठहरे थे सन्यासी ब्राह्मण विद्वान,
चालोद कन्याली था विद्वत स्थान।
वेदान्तों पर परिचर्चा, संलाप,
कुछ मास ठहरकर किये प्रस्थान।।
चंद्रगुप्त वर्मा अकिंचन

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