ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

🚩स्वामी दयानन्द-4-चंद्रगुप्त वर्मा अकिंचन

🚩स्वामी दयानन्द-4

कन्या रत्न को करूं समर्पित,
         कुलभूषण वर को सबनें चाहा। 
 प्रणय सूत्र में बंध न सका वो, 
          इस बंधन में ना बंधना चाहा।। 
अनुजा,चाचा का निधन देख, 
         विधना का था जो अमितलेख। 
उद्विग्न हुआ,संतापी का मन,
          है जीवन का,क्या मीन-मेष ।। 
अमर ज्ञान का अमर पिपासू, 
          भोगी बनकर कब था आया।
कनक,कामिनी,कुल को तज, 
          वो कोपीन लिया छोड़ा माया।।
सन् अट्ठारह सौ चौवालिस का,
          वह माह जुलाई रहा सुकल्पी।
सिद्धि-साधना का प्रण लेकर, 
          त्याग दिया गृह, दृढ़ संकल्पी।। 
धोती, लोटा और आभरण, 
           तीन अंगूँठी, कुछ थे रुपये। 
अपरिग्रह के नाम ठगी कर,
           लूट लिए पथ में बहुरुपिये।।
फिर आकर सायले शहर में, 
          ठहरे,साधूमंडल की संगत में।
जहाँ मिले एक पंथाचारी, 
          दीक्षित करके लिया पंगत में।। 
योगसाधना किंचित सिखलाकर, 
           नामितकर पुनि किया अग्रसर। 
हाथ में तुम्बा, कौशेय पहनकर, 
          'चैतन्य ब्रह्मचारी'चले डगर पर।।
चलकर कोटकाँगड़ा राज्य को आये,
           जहाँ मिले,मायावी,धुर्त वैरागी। 
कौषैय रेशमी वस्त्र को लखकर, 
           ठट्ठा किया,देखो कैसा त्यागी।। 
वहीं रेशमी वस्त्र को तजकर,
          शुभ्र आभरण का किया वरण। 
सिद्धपुर कार्तिक मेले में आकर, 
         नीलकंठ महादेव में लिया शरण।।
सूचना मिली तो पिता श्री पहुँचे, 
         तोड़ा तुम्बा फिर क्रोध उतारा। 
मातु मरे क्या तुम यही चाहते,
         अरे कलँकी क्या कुल को तारा।।

                 ✍️क्रमशः5
           चंद्रगुप्त वर्मा अकिंचन 

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