ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

आत्म -प्रबोध

आत्म -प्रबोध

मानव  मन के उच्छवासों में, विश्वानिदेव का उर्मिल प्रभ हो ।
हिरण्यगर्भ के ज्योति कलश से, धरा सहित आलोकित नभ हो।। 
माया की आसक्ति रहित मन, बुद्धि विवेक अनुभव से युत हो। 
उस परारुप के दर्श हो प्रभु वर, सद् चित रुप आनन्द लिप्त हो।। 
पावन हो तन, पावन हो मन, निष्कलंक हो ये जीवन कोमल। 
विषय , वासना वंचित हो ये मन, छोड़ सभी को हो जा निर्मल ।।
वेदों का अभिज्ञान हो जीवन, श्रुतियोंं से उल्लासित हो जीवन। 
सुख दुख में सम्यक् समभावी, सदा सार्थक आचार हो जीवन।। 
भू-रज से आप्लावित है जीवन, नभ में विचरण करता है मन।
दर्श और आदर्श हो जीवन, अनुकरणीय अध्याय हो जीवन।। 
भाव  चेतना और मनुज मन ,ये  सदय हृदय से बढ़ता जीवन। 
दृढ़ता मन की कर्म कुशलता, वर्धन करता चलता ये जीवन।। 
प्रस्फुटित हो नभ के कोने से, है आता दिनकर विश्वास जगाने। 
संवित वेद्य वेदना मन में, तत् सवित रुप का शुचि अर्थ बताने।। 
केशरिया रंगों की ये छिटकन, अमराई गुंजित पिक का पंचम्। 
खेतों में पसरे  बासंती आभा, है फहर रहा ये किस का परचम् ।।
ऐसे ही संदर्भो में, यह मानव पुनि,मृत्युंजयी  हो आगे है बढ़ता । 
पलकों का उन्मीलन थमता, किन्तु "अकिंचन" जीवन है चलता।।
परोपकारिता  मानव सेवा व  यद् भद्रं जीवन को जो है अपनाता। 
अपना जीवन है दिव्य वह करता, खुद भी वो प्रभुमय हो जाता।।

 ॐशान्तिः।             

चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा ''अकिंचन', गोरखपुर                                           चल भाष-9305988252

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