ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

स्वामी दयानन्द -3-चंद्रगुप्त वर्मा आकिंचन

🚩स्वामी दयानन्द -3

कुलरीति रहा शिव-रात्रि में पूजन,
      रात्रि जागरण, व कीर्तन-अर्चन। 
दिन भर तो भूखे रहे व्रती सब, 
      निशा काल में था शिव आराधन।। 
रीति-पुरातन आयोजन के मिस,
      झाँझ - मजीरा भी खूब बजाया ।
निद्रा बोझिल होते नयनों के हित, 
      रजनी ने अपना आँचल फैलाया।। 
उस चौदह वर्षीय जिज्ञासू को, 
      यह रात्रि जागरण तनिक न भाया। 
कल्याणी शिव-रात्रि ही क्यों ? 
      मन्थन की,पर वो समझ न पाया।। 
शिव-प्रतिमा के सम्मुख में बैठा, 
       छबि देख रहा था, होकर निश्चल।
शिव दर्शन मैं साक्षात् करूँगा, 
        नंदी पर चढ़ आता है किस पल।।
रहा यथावत सब चढा़ चढा़वा, 
        पर सेवन करने आराध्य न आया। 
गणपति वाहन संज्ञा से भूषित, 
         कुल वृन्दों संग दल बल लाया।। 
लगे भोगने मूषक दल मोदक,
         शक्ति स्वरूपा,रक्षक क्यों हारा?
अपनी ही रक्षा में अक्षम जो, 
        फिर रक्षित कब उससे जग सारा।।
प्रतिमा पूजन कर न सका वो, 
        है शक्ति रहित वो,था उसने माना।
बोध हुआ फिर उस अबोध को, 
        सच्चे शिव के मर्म को,वह जाना।। 
चिकने पात बढे़ अब विरवा के,
        तरूवर में भी था यौवन लहराया। 
कीर्ति-सुमन से सुरभित होकर,
        कुल के यश को चहुँ दिशि फैलाया।। 
बीस बसंत पर वैवाहिक बंधन,
        पूरित करने को,थे पिता समुद्यत।
व्याकरण ज्योतिष पढ़ने के मिस, 
        काशी जाने को पुत्र दृढी़ था ,उद्यत।।
अधिक पढ़ा के,पुनि क्या करना है? 
         सब गृही जनों का था यह अभिमत। 
ये जमींदारी कर्म फिर कौन करेगा ?
         पर बैरागी का मन नहीं था सहमत।।

                    ✍️क्रमशः -4
                        चंद्रगुप्त वर्मा आकिंचन

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