🚩महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती 🙏
युग युग जलता रहा दीप जो,
अपनी संस्कृति का धरा गगन में।
था लगा अचानक वह बुझने,
अज्ञान-अविद्या के झंझ-पवन में।।
प्रज्ञा- ज्योति जले कब तक,
था सिसक रहा वो,दिग्-अंचल में।
हर पल, प्रति पल था लगता,
छा जाये तमिस्रा, किस कूक्षण में ।।
दिव्य ज्योति फैला था जब तक,
था शील-धर्म का हो रहा विवर्धन।
दुर्भावी जयचन्दी द्वेष भाव से ,
जब भ्रातृभाव का हुआ विसर्जन।।
बन्धु बन्धु का रिपु हो बैठा,
औ' राष्ट्रीयता का अवसान हुआ।
बलि वेदी पर कटा बन्धु ही,
पावन भारत भू था श्मशान हुआ।।
घाती के घातों में पड़ कर ,
था कुंठित चौहान- बाण हुआ ।
दिग्मण्डल थर्राता था जिससे,
वह ध्वज भगवा भी म्लान हुआ।।
जड़ पूजन से जड़ता आयी,
कुछ उसका भी अभिशाप हुआ।
था सोमनाथ का मन्दिर भी,
दृढ़ प्रतिरोध बिना भूसात हुआ।।
"आर्य बनाओ बसुधा को तुम",
जब लुप्त वेद का यह ज्ञान हुआ।
मिथ्यासम पौराणिक बातों से,
कलुषित प्रज्ञानी- परिधान हुआ।।
काली चन्द राय बना फर्मूली ,
था दूषित बंगाल का भाल हुआ।
आस्था,विश्वास,धर्म-परिवर्तन से,
सारा मर्दित राष्टृ सम्मान हुआ।।
अल्प आयु की दुहिता भी जब,
माता बन अपने दम तोड़ रही।
अपने सुहाग के सिंदुर को सधवा,
विधवा होकर कर से पोछ रही।।
सत् की असत्य परिभाषा से वो,
थी संत्रस्ता होकर, हो सती रही।
लीलाधर पोपों के पापी हाथों में,
पोषित,अधर्म कृति थी पनप रही।।क्रमशः2
✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिंचन"

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